
जोधपुर/देणोक. भारत-चीन युद्ध के 63 साल बाद भी रेगिस्तान की धूल आज भी एक नाम पर रुककर सिर झुका देती है। वह नाम है परमवीर मेजर शैतान सिंह भाटी। बनासर (अब शैतान सिंह नगर) के लोग आज भी उन्हें सिर्फ एक शहीद नहीं, बल्कि अपना संरक्षक, आराध्य और अपने घर-आंगन की परंपराओं का केंद्र मानते हैं। गांव की तंग गलियों से लेकर दूर-दराज ढाणियों तक हर परिवार में एक परंपरा पीढ़ियों से चल रही है- कोई भी शुभ काम मेजर साहब के मंदिर में धोक लगाए बिना शुरू नहीं होता। यहां शादी की बारात निकलने से पहले दूल्हा सबसे पहले इस मंदिर में आकर माथा टेकता है, 'मेजर साहब रक्षा रखें।' यह आस्था पिछले छह दशकों में और गहरी हुई है।
शहीद की पुरानी हवेली के ठीक सामने बना मंदिर सुबह-शाम श्रद्धालुओं से भरा रहता है। परमवीर मेजर के पौत्र राजेन्द्र सिंह भाटी बताते हैं, 'शहादत के समय दादाजी की उम्र सिर्फ 38 साल थी, लेकिन उन्होंने जो जज्बा दिखाया वह आज तक गांव की रगों में बहता है। यहां किसी घर में नया काम हो, बच्चा पैदा हो, फसल कट जाए या शादी-ब्याह हो- सबसे पहले मेजर साहब की पूजा होती है।' बनासर गांव अब शैतान सिंह नगर कहलाता है। गांव के मंदिर को लोग 'मेजर साहब का मंदिर' कहते हैं। पास ही उच्च माध्यमिक विद्यालय का नाम 'परमवीर चक्र मेजर शैतान सिंह उमावि' रखा गया है। यहां पढ़ने वाले बच्चे रोज उनकी प्रतिमा के सामने सलामी देकर दिन की शुरुआत करते हैं।जोधपुर के पावटा चौराहे पर भव्य प्रतिमाजोधपुर के पावटा चौराहे पर मेजर की भव्य प्रतिमा स्थापित है, जहां हर साल सेना और प्रशासन उनकी पुण्यतिथि पर समारोह करते हैं। कागा श्मशान के पास उनका स्मारक बना है जिस पर लोग आज भी पुष्प अर्पित करते हैं। फलोदी जिला मुख्यालय स्थित जिला स्तरीय खेल मैदान का नाम मेजर शैतान सिंह खेल स्टेडियम है, जहां राष्ट्रीय दिवसों के मुख्य समारोह आयोजित होते हैं।
गोलियों से छलनी शरीर पर हौसला था बुलंद
मेजर शैतान सिंह का जन्म एक दिसंबर 1924 को जोधपुर में हुआ। सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल रहे पिता हेमसिंह भाटी की सैन्य परंपरा उनके भीतर बचपन से थी। वर्ष 13 कुमायूं की सी कंपनी के कमांडर के रूप में रेजांग ला में उन्होंने 18 हजार फीट की ऊंचाई पर चीनी सेना की दनादन गोलाबारी के बीच जो वीरता दिखाई, वह दुनिया में बेमिसाल मानी जाती है। भारी ठंड, चारों तरफ से घेराबंदी और गोलियों से छलनी शरीर, फिर भी उन्होंने अपनी टुकड़ी को हौसला देते हुए अंतिम क्षण तक लड़ाई जारी रखी। बांह और पैर में गोली लगने के बाद भी सैनिकों को आदेश दिया, मुझे यहीं छोड़ दो… तुम लड़ते रहो। तीन महीने बाद उनका शव वहीं बर्फ में मिला, उसी मुद्रा में, जैसे मोर्चा संभाले हों। मरणोपरांत उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
Published on:
18 Nov 2025 12:41 am
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