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स्त्री देह से आगे: स्त्री की ‘दिव्यता’ बहुत बड़ी है, इसे समाज के साथ खुद स्त्री को भी समझना होगा- कोठारी

MP news: पत्रिका समूह के संस्थापक श्रद्धेय कर्पूर चंद्र कुलिश के जन्म शताब्दी वर्ष के अवसर पर पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी आज 'स्त्री देह से आगे' विषय पर गहन विवेचना कर रहे हैं, उनका आध्यात्मिक मंथन समाज और स्त्री चेतना के नए आयाम सामने ला रहा है।

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Stree Deh se Aage Gulab Kothari patrika group Editor in Chief Bhopal

Stree Deh se Aage Gulab Kothari patrika group Editor in Chief Bhopal: भोपाल के LNCT कॉलेज के सभागार में गुलाब कोठारी और उपस्थित दर्शक।

MP News: पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी राजधानी भोपाल में हैं। आज का दिन भी विचारों का मंथन लेकर आया है। मंच पर हैं गुलाब कोठारी और विवेचना का विषय है 'स्त्री देह से आगे।' हमारे समाज को 'स्त्री' शब्द के मूल अर्थ को, शाश्वत स्वरूप को उसकी दिव्यता को समझना होगा। समाज के समक्ष उनका प्रश्न है समाज उसे केवल शरीर तक सीमित करके क्यों देखता है? डॉ. कोठारी की बातों में वही संवेदना है जो भारतीय समाज के मूल दर्शन में, जो 'स्त्री' को सृष्टि की मूल चेतना के रूप में स्वीकार करती है। यह विमर्श केवल एक विचार नहीं, बल्कि एक आत्ममंथन है, सामाजिक सोच, दृष्टि और संतुलन पर गहरी टिप्पणी। राजधानी भोपालके LNCT कॉलेज के सभागार में आयोजित कार्यक्रम में डॉ. गुलाब कोठारी ने अपने शब्दों से 'स्त्री' के अस्तित्व को नया आयाम दिया। जिसे सुनकर उपस्थित दर्शक मंत्र मुग्ध हो गए।

11.10 बजे- गुलाब कोठारी का संबोधन

डॉ. कोठारी ने अपने संबोधन में कहा कि कोई भी शास्त्र शरीर के लिए नहीं लिखा गया है। जीवन में दो ही हिस्से हैं एक शरीर और एक आत्मा। आत्मा को न पैदा किया जा सकता है ना वो मरती है। और मैं आत्मा हूं, ये तथ्य हमारे जीवन से ओझल होता जा रहा है। शरीर माता-पिता पैदा करते हैं। उसकी एक उम्र है। उस उम्र तक हम उस शरीर में रहते हैं। फिर शरीर क्षीण होता है और हम शरीर बदल लेते हैं। हमारे भारतीय समाज का दर्शन कर्म पर आधारित है। कर्म, कर्म के फल हमारे यहां पूर्व जन्म के सिद्धांत को प्रतिपादित करते हैं। उन्हीं फलों को भोगने के लिए हम नया शरीर धारण करते चले जाते हैं। अब नई विज्ञान की भाषा में ये तत्व गौण हो गया है। तत्व इस देश में गौण हुआ भी नहीं और होगा भी नहीं। क्योंकि जीवन का मूल आधार तत्व है। विज्ञान भी मानता है कि यूनिवर्स में दो एलिमेंट हैं एक मेटर और एक एनर्जी, तीसरा कोई नहीं। ये कभी खत्म नहीं होते, एक दूसरे में बदलते रहते हैं।

आज विज्ञान ने ये भी स्वीकार किया है कि मेटर एनर्जी और एनर्जी मेटर एक ही तत्व है, जो दो रूप धारण करता है। हम गीता या वेद पढ़ें तो यही दो बात मिलती हैं। सृष्टि की शुरुआत में इसे ब्रह्म और माया कहते हैं। जैसे-जैसे हम सृष्टि में आगे बढ़ते हैं, हम पृथ्वी पर आते-आते स्थूल जीवन में आ जाते हैं। वहां हम इसे अग्नि-सोम कहते हैं। स्त्री-पुरुष कहते हैं।

हमारा दर्शन भी यही कहता है कि अग्नि और सोम दो तत्व नजर आते हैं, लेकिन एक ही हैं। अग्नि गर्म होकर ऊपर उठता है और ठंडा होकर सोम बन जाता है, वही सोम नीचे आकर अग्नि बनकर जलने लगता है। दो दिखाई जरूर दे रहे हैं, लेकिन तत्व एक ही हैं। यानी हम विज्ञान की दृष्टि से देखें तो ये दोनों अग्नि और सोम मिलकर ही विश्व का निर्माण करते हैं। हर निर्माण में अग्नि और सोम यानी एनर्जी और मेटर साथ चलते हैं। अग्नि पुरुष है, सत्य है यानी जिसकी आकृति और केंद्र है, जिसकी आकृति और केंद्र नहीं वो रिक्त कहलाती है, जैसे हवा, पानी, प्रकाश रिक्त हैं, इनकी कोई आकृति नहीं बनती, केंद्र नहीं है, ये रिक्त हैं। इस रिक्त से सृष्टि नहीं सत्य बनता है। सत्य से रिक्त और रिक्त से सत्य बनता है, तब आकृति बनती है। जो सबसे पहले आकृति बनती है, तो वही इनकी प्रारंभिक भूमिका है। जो आकृति है वही अग्नि है, जो आकृति नहीं वो सोम है। आज सत्य और रिक्त को अलग-अलग तत्वों तरह परिभाषित करते हैं। एक नया दर्शन खड़ा किया हुआ है।

स्त्री और पुरुष अर्द्धनारीश्वर यूं ही नहीं हैं...

यही तत्व अर्द्धनारीश्वर है। पुरुष में सोम भाव बहुत कम है इसलिए वो अग्नि है, पुरुष है। और स्त्री में सोम ज्यादा होता है, अग्नि भाव कम होता है, तो वो सोम कहलाएगी, स्त्री कहलाएगी। यही दोनों तत्व मिलकर अर्द्धनारीश्वर कहलाते हैं। इस देश के मूल दर्शन का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है ये। इसे व्यावहारिक रूप में देखें तो एक नई दृष्टि मिलती है। पुरुष बाहरी रूप से यानी शरीर से अग्नि है, आकृति है उसके पास, ऊष्णता है, फैलने की क्षमता है, लेकिन भीतर वो सोम है। दुनिया में जितने भी बीज हैं, वो सोम हैं। अग्नि में आहूत होते हैं, सोम कहलाते है। यही सोम पुरुष के भीतर बीज रूप में प्रतिष्ठित रहता है। स्त्री बाहर से सोम यानी सौम्य है, लेकिन अंदर से अग्नि है। ये अग्नि ऊष्णता है, विखंडन होने पर सौम्य है। अग्नि जहां तोड़ता है, सोम वहां जोड़ता है।

स्त्री का पहला भाव

स्त्री और पुरुष को हम परिवार में देखें कि उनका पोषण कैसे हो रहा है हमारे परिवार में देखें तो हमारे समाज में क्या हो रहा है, वो बदलाव क्या है समाज में आज का, इसे अगले 100 सालों में देखें तो सोचें हमारा समाज आगे क्या होगा? परिवार में देखें कि लड़के को कैसे पाला जा रहा है? तो हम देखेंगे कि उस परिवार की, उसके परिजनों की उस लड़के के प्रति, समाज की एक ही दृष्टि है और इसका एक ही नाम है कि वो लड़का है। उसकी किसी भी गतिविधि पर किसी तरह का कोई नियंत्रण, कोई रोक-टोक नहीं है। वो स्वतंत्र नहीं स्वच्छंद है। परिवार में उसके पौरुष भाग का ही पोषण किया जा रहा है। लेकिन उसके सौम्य वाले हिस्से का कोई पोषण नहीं हो रहा है। उसकी ऊष्णता, उसकी आक्रामकता बढ़ती जा रही है। उसका अहंकार बढ़ता जा रहा है। हर पुरुष का निर्माण हमारे समाज में एक ही तरीके से हो रहा है।

अब कन्या पक्ष को देखें कि उसका निर्माण कैसे हो रहा है, तो एक दूसरी ही तस्वीर नजर आएगी। वहां स्वतंत्रता नहीं है। वहां शरीर भी है और आत्मा भी है। पुरुष के उस विकास में जहां शरीर ही प्रमुख है, लेकिन जब कन्या बड़ी हो रही है, तो वो मां के, परिवार के हर सदस्य के नियंत्रण में बड़ी हो रही है। इस देश में कन्या भोज का सबसे बड़ा कारण है, उसको हम इस देश का भविष्य देखकर चलते हैं कि वो देश को गौरवशाली संतान देगी, देश का सिर उठाने वाली संतान देगी। इसलिए समाज का पूरे देश का दायित्व बनता है कि उसके सम्मान की पूरी रक्षा की जाए। उसका पोषण किया जाए। अकेले परिवार की ड्यूटी नहीं है कन्या। 6-7 की कन्या भी अपने छोटे बहन भाइयों का एक मां की तरह ध्यान रखती संभालती नजर आती है। उसकी समझ, उसकी गंभीरता और उसकी परिपक्वता का अनुमान यहां होगा कि वो एक मातृत्व का ही भाव लेकर पैदा हो रही है। और उसी से वो अपनी आत्मा, परिवार और समाज के साथ बड़ी हो रही है। ये उसका एक भाव है।

स्त्री का दूसरा भाव

उसका दूसरा भाव है कि वो अपने शरीर का निर्माण करती जा रही है। परिवार के साथ सारी परम्पराओं का हिस्सा बनती जा रही है। परिवार में त्योहार, शादी, व्यवहार, रिश्ते, परिवार और समाज को देखते हुए सबका अध्ययन करते हुए बड़ी हो रही है। एक छात्रा जैसे सबसे सीख रही है। तब उसके ज्ञान को भी आप जिंदगी के साथ देखें तो ये उसका व्यावहारिक पक्ष है, जो मजबूत रूप से आगे रहा है।

स्त्री का तीसरा पक्ष

तीसरा उसका निजी पक्ष है कि उसे ये भी पता है कि उसको एक महिला बनना है, नये घर जाना है। एक परिवार को खड़ा करना है। और अपने जीवन का एक निर्माण करना है। उसे पता है कि वो क्यों पैदा हुई है, लड़का नहीं जानता, महिला जानती है कि उसका जन्म क्यों हुआ है। उसे मन के कोने में ये भी लिखा है कि उसका नया घर कैसा होगा? उसका परिवार कैसा होगा? उसका वर कैसा होगा? उसके लिए भी वो प्रार्थना करती है जब तक उसका विवाह नहीं होता, तब तक वो देवी-देवता की आराधना करती है। ये उसके विकास की धारी है, तो उसकी सौम्यता लगातार बढ़ती जा रही है, लेकिन पौरुष भाव छिपा रहता है। इसके आगे उसकी सौम्यता बहुत बड़ी हो गई।

विवाह दो शरीर नहीं, दो आत्माओं को जोड़ता है

आज जब बात उनके शरीर की आती है तो एक बड़ा परिवर्तन दोनों के जीवन में आ रहा है। इसके लिए एक बात समझने की जरूरत है कि हमारा शरीर मंत्रों से बना है। उनकी ध्वनि, शब्द नाद, उनके जीवन का आधार इन्हीं मंत्रों से जुड़े हैं। इन्हीं मंत्रों के सहारे एक आत्मा का निर्माण होता है। मंत्र, ध्वनि दिखाई नहीं देती, आत्मा दिखाई नहीं देती। कहने का अर्थ है कि अगर मुझे खुद का निर्माण करना है, तो मुझे उस अदृश्य स्वरूप को समझना होगा। मैं शरीर नहीं हूं, शरीर जड़ है। शरीर में चेतना नहीं है, ये बहुत बड़ा प्रश्न है।

विवाह किसका होता है, क्यों किया जाता है कन्यादान

तब जब विवाह का क्षण आता है, तो विवाह किसका होता है? हमारे यहां दो शरीरों का नहीं बल्कि, दो आत्माओं का विवाह होता है। दोनों आत्माएं अदृश्य हैं, प्राणरूप हैं, हमारी जीवात्मा का स्वरूप भी प्राण का है। और प्राण को जोड़ना है, तो हमें मंत्रों से जोड़ना होगा। हमारे यहां सात जन्मों का विवाह होता है। इस विवाह के सहारे स्त्री का पिता विवाह में साथ बैठता है और मंत्रों के माध्यम से उसका बीज यानी प्राण भाग दूल्हे के साथ जोड़ता है, तब इन दोनों के प्राण जुड़ते हैं।

जीवन को आध्यात्मिक नहीं, तत्व रूप में समझें

हमें जीवन को आध्यात्मिक नहीं, बल्कि तत्व के रूप में समझना होगा। कन्या विवाह से पहले अपने शरीर, रिश्ते-नातों के लिए जी रही थी, लेकिन विवाह के बाद उसके शरीर का मोह पिता के घर में छूट गया। अब दो आत्माओं का जीवन शुरू हो रहा है। अब वो ब्रह्म में जी रही है, अब उसके सपने दूसरे हैं। इसके लिए कोई दूसरी किसी शिक्षा से नहीं, बल्कि इसी शिक्षा के साथ सीख पाएंगे। एक मां ही समझ सकती है कि इस घर में एक नई आत्मा ने प्रवेश कर लिया है। उसकी दिव्यता का एक काम शुरू हो रहा है। ये तो छोटा सा उद्धरण है, लेकिन इससे बड़ी बात ये है कि उसे समझ आने लगा है कि ये नया मेहमान कौन से घर को छोड़कर आया है, ये पहले किस शरीर में था और अब जो मेरे शरीर में आया है, वो क्या गुण लेकर आया है। जो जीवआत्मा मां के शरीर में आया है, वो क्या था पिछले जन्म में। इससे बड़ी दिव्यता क्या होगी कि जो इस बात को समझ ले कि वह किस शरीर से आया है। वो भी बिना शिक्षण के, उसके जीवन में जो भी परिवर्तन आएंगे, जिस दिन वह उस घर के दरवाजे में प्रवेश कर लिया। विज्ञान को भी ये पता नहीं।

मां का सबसे बड़ा दायित्व क्या है?

मां का सबसे बड़ा दायित्व है कि वो उस आत्मा को जो शरीर नहीं था, उसे इस घर में रहने लायक इंसान बनाना है। ये काम तो कोई देवता नहीं कर पाएंगे। एक आत्मा को पशु-पक्षी की आत्मा को इंसानी स्वभाव में ढालना उसका काम है, मां और संतान के बीच कोई माध्यम नहीं, संवाद में भी नहीं। कैसे उसे ट्रेनिंग मिले कि वो इंसान बन जाए, वहां अंधेरा है, जैसे जहां विष्णु बैठे हैं, ठीक उसी नाभि कमल पर बैठे हैं। ये असंभव लगता है, विज्ञान में भी संस्कार देने की ताकत नहीं है। ये पशुता का भाव नहीं है। शरीर पशु है आत्मा नहीं, चेतना का भाव बाइलॉजिकल बेबी में नहीं है। मां का एक भाव एक स्वरूप है कि उसकी संतान विदेश में है और बीमार है, दुखी है, तो मां को यहां बैठकर पता चल जाएगा। ये वो ताकत है जो एक मां आत्मा को इंसान बनाने की कोशिश कर रही है। मां जो आत्मा है वो ब्रह्म है, ब्रह्म की मां है, उसे जन्म देने वाली है, वो अपनी संतान के लिए उसी आकृति का निर्माण करती है गर्भ है। मां जो अन्न खा रही है, उससे मां का शरीर बन रहा है, उसी अन्न के अंश से मां अपनी संतान का निर्माण कर रही है। ऐसे में ये शरीर ही संतान के लिए मां है। मां शरीर नहीं है, इसलिए उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

हमें मां को समझना होगा

आत्मा को आदमी बनाना है ये बहुत बड़ा काम है, आत्मा को संस्कारित करना है। ये अन्न से नहीं होगा। इसके लिए आत्मा को शरीर से शरीर को आत्मा से जोड़ना पड़ेगा। परा प्रकृति है, जो जीव का निर्माण करेगी जो आत्मा को संस्कारित करेगी, वो मां है। हमें मां को समझना होगा, कि उन्होंने अपनी संतान को संस्कारित कैसे किया? किया या नहीं? सोचें मां उसे संस्कारित न करें, परिवार के संस्कार नहीं दे तो क्या होगा? वो आत्मा अगर पशु की होगी तो वैसा ही रहेगा। सोचें आज इतने अत्याचार, पशुवत क्यों है हमारे समाज में। अगर एक मां आत्मा को संस्कारित नहीं करती समाज को सौंपने से पहले तो वो पशु ही रहेगा। अगर देवत्व संतान में नहीं है, तो उसका देवत्व देश को नहीं मिलेगा। क्यों पूजा होती है हमारे समाज में इसीलिए क्योंकि वो आएगी तो देवता आएंगे, जो समाज को भी देवत्व देंगे।

'स्त्री' का भाव ही है हमेशा देने वाली, वो कभी नहीं लेती

स्त्री अपने लिए नहीं जीती, दूसरों को लिए जीती है। मां एक पेड़ है, जो फल लगाती है, वो आने वाली पीढ़ियां खाएंगी। छाया, फल सब कुछ दूसरों के लिए, तो एक मां एक स्त्री साधारण हो ही नहीं सकती। ये तो एक ही भाग है मां का, वो संतान की परवरिश कर रही है, ये भी देखें कि वो पति को भी पुत्र की तरह पालती है, पिता ही पुत्र बनता है, पिता की भी मां और पति की भी मां है, वो माया है ब्रह्म के लिए जन्म लेती है।

'स्त्री' ही कर सकती है निर्माण, वही दिला सकती है मोक्ष

घरों में लड़कों में जो स्त्री का हिस्सा है उसका पोषण नहीं होता, लेकिन पत्नी के रूप में स्त्री पति के इस रूप को पोषित करती है और उसे पूर्णता देती है। 50 साल के बाद इस पुरुष को वो मोक्ष का रास्ता दिखाने का काम कर रही है। वो ब्रह्म को अपने शरीर में आहूत करती है, निर्माण करती है, उसका विकास करती है, और फिर अंत में मोक्ष को उसी की आत्मा के साथ प्राप्त करती है। पूरा जीवन वो दूसरों के लिए जीत जाती है।

आज की शिक्षा बड़ी चिंता

लेकिन आज जो बड़ी चिंता है, शिक्षा, करियर और नौकरी की... जो स्त्री के बारे में कुछ नहीं बताती। इसका एक ही निवारण है कि स्त्री अपने देवत्व को समझ ले तो ये देश फिर से ज्ञान का गुरु बन जाएगा। विकासशील देश का सपना भी स्त्री ही पूरा कर सकती है।

प्रश्नों में उलझे दर्शकों की जिज्ञासा को डॉ. कोठारी ने अपने जवाबों से किया शांत

प्रश्न: स्त्री अग्निस्वरूपा है, उसे नौकरी करते हुए समाज से सहयोग नहीं मिल रहा? क्यों?- सुनीता शर्मा

उत्तर- क्यों कि उसकी आत्मा पति की आत्मा के साथ है, उसका पहला धर्म है परिवार यानि अग्नि, अग्नि को सोम की आवश्यकता है, सोम को अग्नि और अग्नि को सोम नहीं मिला तो वो बुझ जाएगी। इसलिए अपना धर्म और कर्तव्य समझें तो ये समस्या सुलझ जाएगी।

प्रश्न -स्त्री को बढ़ावा देने के बाद भी वो पिंजरे में बंद पक्षी की तरह रहती है, बंधन के बीच सामंजस्य कैसे बैठाएं?

ये प्रश्न नई पीढ़ी के मन में भी है, जो बात हम उस शिक्षा के माध्यम से हम नहीं ढूंढ़ पाए, शिक्षा में आत्मा यानी मेरी बात नहीं है, शिक्षा का लक्ष्य केवल पैकेज, शरीर से जुड़े आयाम है, आदमी की चिंता उसमें नहीं है, वो बुद्धि को तीक्ष्ण करती है, लेकिन वो संवेदना नहीं सिखाती, इस पढ़ाई ने संवेदना को छीन लिया है। पुरुष बुद्धि से जीता है, परिवार समाज चलाना है, उसे बुद्धि चाहिए, मां को संवेदना, ममता चाहिए, पढ़ाई स्त्री को स्त्री बनना नहीं सिखाती। जब लड़कियां लड़का बनने लगेंगी तो ब्रह्मांड के संतुलन का क्या होगा। जो महिला संवेदना ममता के लिए जानी जाती है, वो अहंकार के लिए जानी जाएगी। वो संस्कार देती है, वो ब्रह्म ही हर शरीर हर संसार में जन्म ले रहा है। आपकी संतान भविष्य में आपकी ही सबसे बड़ी शत्रु बनकर आएगी।

प्रश्न- दांपत्य का सही अर्थ क्या है?-डॉ. भावना ठाकुर

उत्तर- दांपत्य हमारा तय किया हुआ धर्म नहीं है। कर्म ये है कि ब्रह्म ने माया को अपने विस्तार कर्म के लिए पैदा किया है। गीता को भी हमें साइंस के धरातल पर पढ़ना चाहिए। पुरुष के भीतर जो ब्रह्म है जो बीज है आप उसे खींचकर अपने शरीर में लाती हैं और एक नया ब्रह्म तैयार कर समाज को दे रही है। फिर अपने कर्म पूरे करते हुए पति रूपी ब्रह्म को आप वापस ब्रह्म में पहुंचा रही है। इससे बड़ा काम और क्या होगा आपका।

प्रश्न- लालन-पालन में माता-पिता का बड़ी भूमिका है, लेकिन आजकल वो संस्कारों में पिछड़ रहे हैं, हम क्या करें? हमारी तरफ से कहां कमी रह जाती है?

उत्तर- पढ़ाई जीवन जीना, कमाई करना सिखा रही है। लेकिन नौकरी का काम 8 घंटे है। बाकी 16 घंटे की जिंदगी को व्यवस्थित रखने के लिए है। अब इस पढ़ाई ने हमें 24 घंटे का नौकर बना दिया। घर पर मैं वो नहीं था जो पढ़ने गया था। आपने कमाई खर्च कर अपनी संतान को इंजीनियर बनाया, डॉक्टर बनाया। लेकिन जब वो घर आती है, तो एक इंजीनियर एक डॉक्टर आपसे मिलता है, संतान नहीं। संस्कार तो मां ही दे सकती है, जो वो उसे पेट में ही देख सकती है। मां ने जो घड़ा 9 महीने में पकाया, वो आपको जन्म लेने के बाद उसे आप रंग-रोगन, हिंदू-मुसलमान बना सकते हो, लेकिन बदल नहीं सकते।

आत्मविश्वास के साथ वो अपना लक्ष्य कैसे प्राप्त करें-

इसका कोई विकल्प नहीं है, आपको प्रकृति के साथ बैठकर स्त्री को समझना होगा। स्त्री शब्द शरीर नहीं, मां शरीर नहीं, ये तत्व का नाम है, ये बहुत बड़ी एनर्जी का नाम है। शरीर तो चला जाएगा, लेकिन आप तो उसके बाद भी रहोगे, उसे आपको समझना होगा। इस शरीर के भीतर आपको आत्मा के लिए जीना होगा। आत्मा को समझेंगी तो स्वाभिमान आ जाएगा और आत्मविश्वास अपने आप आएगा। हम सशक्तिकरण पर घमंड करते हैं, कौन-सा देवता है, जिसे मां ने जन्म नहीं दिया। इस भूमिका को समझें कि आप देने के लिए पैदा हुई हैं, पढ़ाई उसे लड़का बनाने का ही प्रयास कर रही है। जो तकलीफ महिलाओं के सामने है वो पुरुष के सामने नहीं, लिव इन, अकेले रहने ये किस कारण है, क्योंकि स्त्री आज खुद के अस्तित्व को भूल गई हैं।

स्त्री कुछ भी कर सकती है, स्त्री की परिभाषा ने बदला जीवन

आपने जो स्त्री की व्याख्या ऐसी दी है कि मैं समझ गई स्त्री कुछ भी कर सकती है। ऐसी स्त्री व्याख्या के लिए मैं सभी महिलाओं की ओर से आपका आभार व्यक्त करती हूं।

-डॉ. शालिनी सक्सेना