जिला अस्पताल के आसपास जब आप नजर दौड़ाते हैं तो सरकारी 108 और संजीवनी एंबुलेंसों की बजाय, निजी एंबुलेंसों की एक लंबी कतार दिखाई देती है। यह दृश्य किसी असंगठित भीड़ का नहीं, बल्कि एक सुव्यवस्थित लेकिन अपारदर्शी व्यवस्था का हिस्सा है। एक ऐसा गठजोड़, जो आपातकालीन स्वास्थ्य सेवाओं को भी कमाई का जरिया बना चुका है। इस गठजोड़ की सबसे बड़ी झलक झांसी रेफर सिस्टम के नाम से पहचानी जाती है। जहां एक ओर सरकारी सेवाएं सुलभ नहीं हैं, वहीं दूसरी ओर निजी एंबुलेंसें मरीजों की मजबूरी का फायदा उठाकर न केवल भारी किराया वसूल रही हैं, बल्कि मरीजों को रेफर करने की प्रक्रिया को भी अपने मुनाफे की योजना में बदल चुकी हैं।
छतरपुर जिले में लगभग 35 सरकारी एंबुलेंसें मौजूद हैं, इनमें 108, 102 और 24 संजीवनी एंबुलेंसें भी शामिल हैं। लेकिन जब मरीजों या उनके परिजनों को आवश्यकता होती है, तो ये वाहन या तो अनुपलब्ध होते हैं या उन्हें घंटों इंतजार करना पड़ता है। इसके विपरीत निजी एंबुलेंस संचालक अस्पताल परिसर में सक्रिय रहते हैं। जानकारी के मुताबिक, अस्पताल के कुछ कर्मचारियों और इन संचालकों के बीच सीधा संवाद और साठगांठ बनी हुई है। जैसे ही कोई गंभीर मरीज आता है, उसे चुपचाप निजी वाहन की ओर निर्देशित कर दिया जाता है। यह प्रक्रिया इतनी सुसंगठित हो चुकी है कि यह कहना गलत नहीं होगा कि सरकारी तंत्र एक छाया की तरह मौजूद है, जबकि असली संचालन निजी माफिया के हाथ में है।
छतरपुर शहर में करीब 50 से अधिक निजी एंबुलेंसें सक्रिय हैं। इनमें से अधिकतर या तो आरटीओ से अप्रूव नहीं हैं या सीएमएचओ कार्यालय में पंजीकृत नहीं हैं। इसके बावजूद ये वाहन न केवल शहर बल्कि पूरे जिले में चलाए जा रहे हैं। अधिकतर में न अग्निशमन यंत्र होते हैं, न ऑक्सीजन सिलिंडर, और न ही कोई क्वालिफाइड मेडिकल स्टाफ। इसके बावजूद मरीजों से 4000 से 5000 तक की वसूली की जाती है, खासकर तब जब रेफर गंतव्य झांसी होता है। कोई तय किराया सूची नहीं है, कोई रसीद नहीं मिलती और कई मामलों में, न तो कोई मेडिकल गाइडलाइन फॉलो की जाती है और न ही ट्रैवल के दौरान आवश्यक उपकरण सक्रिय किए जाते हैं।
झांसी, छतरपुर जिले के लिए एक प्रमुख रेफर सेंटर है। गंभीर मरीजों को झांसी भेजा जाता है, लेकिन यह प्रक्रिया अब पूर्णत: रेफर दलालों के नियंत्रण में है। निजी एंबुलेंस संचालकों के झांसी के कुछ नामी निजी अस्पतालों से समझौते हैं। वे मरीज को उस अस्पताल में ले जाते हैं जहां से उन्हें 20 से 30 प्रतिशत तक कमीशन मिलता है। इससे भी अधिक गंभीर बात यह है कि कई मामलों में, एंबुलेंस स्टाफ मरीज के परिजनों को यह तक बताते हैं कि झांसी में कौन सा डॉक्टर अच्छा है या कौन सा अस्पताल सबसे बढिय़ा इलाज करता है। यह सलाह उनके कमीशन नेटवर्क से जुड़ी होती है, न कि चिकित्सा विवेक से।
बीते वर्ष तात्कालीन आरटीओ विक्रम जीत सिंह कंग ने जब कार्रवाई की थी, तब 9 एंबुलेंस बिना वैध दस्तावेजों के पकड़ी गई थीं। उन्हें सीज किया गया था और सुरक्षा-स्वास्थ्य संबंधी निर्देश भी जारी किए गए थे। लेकिन आज, वही गाडय़ां फिर से सडक़ों पर दौड़ती दिखती हैं।
सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि सीएमएचओ कार्यालय खुद स्वीकार करता है कि जिले में चल रही कोई भी निजी एंबुलेंस उनके यहां पंजीकृत नहीं है। यह स्थिति अपने-आप में एक प्रशासनिक विफलता को दर्शाती है। कोरोना काल के दौरान तत्कालीन कलेक्टर शीलेंद्र सिंह द्वारा जो किराया सूची तय की गई थी, वह आज निष्क्रिय पड़ी है।
छतरपुर में एंबुलेंस संचालन को नियमित करने के लिए ज़रूरी है कि सभी निजी एंबुलेंसों का पंजीयन अनिवार्य किया जाए। किराया सूची सार्वजनिक रूप से वाहन में चस्पा की जाए। फस्र्ट एड, ऑक्सीजन, अग्निशमन यंत्र जैसी अनिवार्य सुविधाओं की जांच हो। रेफर नेटवर्क में कमीशन की जांच के लिए विशेष टीम गठित की जाए। जिला अस्पताल परिसर के पास निजी एंबुलेंस की अनधिकृत पार्किंग रोकी जाए।
इस संबंध में सीएमएचओ डॉ. आरपी गुप्ता ने कहा, मरीजों का परिवहन करने के लिए एंबुलेंस संचालकों को पंजीकरण कराना अनिवार्य है। यदि बिना पंजीकरण के एंबुलेंस गाडिय़ां चल रही हैं, तो हम इसकी जांच करेंगे और आवश्यक कार्रवाई करेंगे।
Published on:
09 Aug 2025 10:32 am