
अखिलेश यादव फोटो सोर्स X अकाउंट
बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों ने विपक्षी दलों के भीतर हलचल बढ़ा दी है। खास तौर पर समाजवादी पार्टी में इस परिणामों को लेकर सबसे ज्यादा बेचैनी देखी जा रही है। बिहार में यादव समुदाय की राजनीतिक मौजूदगी में भारी गिरावट दर्ज हुई। 2020 में जहां 55 यादव विधायक थे। वहीं 2025 में यह संख्या घटकर केवल 28 रह गई। यानी आधी ताकत विधानसभा में ही सिमट गई।
अब सवाल उठ रहा है कि अगर यही रुझान यूपी में भी दोहराया गया। तो हालात किस करवट बैठेंगे? क्या सपा के पास इसका कोई समाधान है? पीडीए के फार्मूले पर चल रही पार्टी क्या इस गठजोड़ को और मजबूत करने की तैयारी कर रही है। बसपा और मायावती पर बयानबाजी रोकने का ताजा निर्देश भी इसी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है।
बिहार परिणामों ने सपा खेमे में सबसे अधिक चिंता इसलिए भी पैदा की है। क्योंकि पार्टी कार्यकर्ताओं को आशंका है कि यहां भी भाजपा चुनाव से पहले महिलाओं को 5-10 हजार रुपए का ऑफर देकर बाज़ी पलटने की कोशिश कर सकती है। इसे देखते हुए सपा नेतृत्व ने अपने सभी प्रवक्ताओं को साफ आदेश दिया है कि वे बसपा या मायावती पर कोई भी व्यक्तिगत टिप्पणी न करें। जानकार इसे सपा की सोची-समझी चाल बताते हैं।
बिहार में लालू प्रसाद यादव का प्रभाव 90 के दशक से लेकर 2000 तक स्थिर रहा। इसी तरह यूपी में मुलायम सिंह यादव का परिवार लंबे समय तक राजनीति के केंद्र में रहा है। वर्तमान में भी यादव परिवार के 5 सांसद और 2 विधायक सक्रिय हैं।
अखिलेश यादव समझ चुके हैं कि केवल यादव-मुस्लिम समीकरण के भरोसे यूपी में सत्ता नहीं बदली जा सकती। इसी कारण 2022 के बाद से उन्होंने पीडीए की धार को तेज किया। जिसका असर उन्हें 2024 के लोकसभा चुनाव में मिला भी। लोकसभा चुनाव में यादव परिवार के 5 सदस्यों को टिकट दिया गया। सभी ने जीत दर्ज की। कन्नौज से अखिलेश, मैनपुरी से डिंपल, आजमगढ़ से धर्मेंद्र, फिरोजाबाद से अक्षय और बदायूं से आदित्य। विधानसभा में भी यादव परिवार के दो सदस्य पहुंचे— जसवंत नगर से शिवपाल सिंह और करहल उपचुनाव के विजेता तेज प्रताप यादव।
यूपी विधानसभा की मौजूदा तस्वीर देखें तो कुल 20 यादव विधायक हैं। जिनमें 18 सपा के और 2 भाजपा के हैं। 2017 में यह संख्या 16 थी। 2012 में 19 और 2007 में भी 19 विधायक थे, लेकिन तब विभिन्न दलों से यादव प्रत्याशी जीतकर आए थे।
पार्टी की योजना है कि आगामी विधानसभा चुनाव में यादव उम्मीदवारों की संख्या सीमित रखी जाए। उद्देश्य यह दिखाना है कि सपा केवल यादव-वाद तक सीमित नहीं है। बल्कि व्यापक सामाजिक आधार बनाने की कोशिश में है। टिकट उन्हीं यादव प्रत्याशियों को दिए जाने की संभावना है। जहां वे पहले से विधायक हैं। या सीट यादव बहुल है।
2024 लोकसभा चुनाव में सपा ने एक नया प्रयोग किया था। सामान्य सीटों पर दलित प्रत्याशी उतारने का। मेरठ और अयोध्या में यह मॉडल अपनाया गया। मेरठ में मामूली अंतर से हार मिली। लेकिन फैजाबाद सीट बड़े अंतर से जीती गई। यही फार्मूला 2027 में भी लागू किया जा सकता है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अखिलेश यादव अब पीडीए में ‘डी’ यानी दलित वर्ग पर विशेष फोकस कर रहे हैं। क्योंकि यादव-मुस्लिम गठजोड़ अपने आप में पर्याप्त नहीं रह गया है। पार्टी के भीतर यह संदेश साफ तौर पर दिया गया है कि बसपा मुखिया के खिलाफ कोई बयान नहीं दिया जाएगा।
बसपा मामलों के जानकार का कहना है कि यह फैसला इसलिए लिया गया है। क्योंकि दलित समाज में मायावती की छवि अभी भी बेहद सम्मानजनक है। उनसे दूरी बनाना राजनीतिक तौर पर नुकसानदेह हो सकता है।
Published on:
22 Nov 2025 02:09 pm
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