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मोह को त्यागे बिना आत्मानुभूति संभव नहीं: मुनि विलोकसागर

दिगंबर बड़ा जैन मंदिर में 28 अगस्त से 06 सितंबर तक चलेगा पर्युषण पर्व, संयम की साधना के साथ विभिन्न धार्मिक आयोजनों भी होंगे

मुरैना. नगर के आध्यात्मिक वर्षायोग 2025 के तहत श्री पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन पंचायती बड़ा जैन मंदिर में चातुर्मासरत आचार्य आर्जवसागर महाराज के शिष्य युगल मुनिराज विलोकसागर एवं मुनि विबोधसागर महाराज ने आचार्य कुंद स्वामी द्वारा रचित ग्रंथ समयसार की वाचना में आज बताया कि मोह रूपी मदिरा शराब से भी ज्यादा नशीली होती है। शराब अथवा किसी भी अन्य व्यसन का नशा तो कुछ देर में या कुछ समय में उतर जाता है और नशा उतरते ही व्यक्ति को सच्चाई का अनुभव होने लगता है।

जैन मुनि ने कहा कि मोह रूपी मदिरा के नशे में व्यक्ति अपनी आत्मा को ही भूल जाता है। वह अपने मूल स्वरूप से भटक जाता है। ऐसा व्यक्ति की गति चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करती रहती है। मोह के वशीभूत हमारी आशक्ती बढ़ती जाती है। यह मेरा है, यह मैंने किया है, धन के प्रति, परिवार के प्रति, जमीन जायदाद के प्रति, पद के प्रति आशक्ति बढ़ती जाती है। जिस कारण जीव का संसार भ्रमण बढ़ जाता है। जिस दिन हम यह चिंतन कर लेगें कि आत्मा का कुछ नहीं हैं, आत्मा तो स्वतंत्र है, आत्मा तो अजर अमर है, शेष सभी बस्तुएं नाशवान हैं, पुदल बस्तुएं तो नष्ट होना हैं। इनकी आशक्ती ही हमारे दुखों का कारण हैं। अत: हमें राग द्वेषों को त्यागकर आत्मा का चिंतन करना चाहिए।

मोक्ष मार्ग के लिए आशक्ति त्यागना होगी

जैन मुनि ने कहा कि यह मोहनीय कर्म सबसे जटिल है, यह सबसे अधिक समय तक आत्मा से जुड़ जाता है। अत: हमें विषयों के प्रति, पर पदार्थ के प्रति, संसार के प्रति आशक्ति कम करते हुए मोक्ष मार्ग पर आगे बढ़ते रहने का प्रयास करते रहना चाहिए। जब तक हम मोह के मायाजाल में फंसे रहेंगे, तब तक इस संसार के जन्म मृत्यु के जाल से मुक्त नहीं हो सकते। मोह को त्यागे बिना आत्मानुभूति हो ही नहीं सकती। मोक्ष मार्ग पर बढऩे के लिए मोह का त्यागना ही होगा।

पर्वराज पर्युषण पर्व 28 से

वरिष्ठ समाजसेवी अनूप जैन भंडारी ने बताया कि जैन धर्मावलंबियों का सबसे बड़ा पर्व पर्युषण पर्व 28 अगस्त से 06 सितंबर तक संयम की साधना के साथ, विभिन्न धार्मिक आयोजनों के साथ मनाए जाएंगे। ये पर्व दस दिन मनाया जाता है, इसलिए इन्हें दसलक्षण पर्व भी कहा जाता है। यह पर्व पंचमी से लेकर अनंत चौदस तक चलते हैं। इन पर्वों का जैन समुदाय में अत्यधिक महत्व होता है। पर्वों के दस दिनों में सभी साधर्मी पूजन, भक्ति, व्रत, उपवास, स्वाध्याय आदि करते हुए जाने अनजाने में हुए पापों को नष्ट करने हेतु संयम की साधना करते हैं।