Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

किन्नर सम्मेलन में होता है रिश्तों का ‘पुनर्जन्म’ : जहां खून से नहीं, दिल से बनते हैं रिश्ते

नागौर में किन्नर समाज का अखिल भारतीय महासम्मेलन : कोई बनेंगी बहन तो कोई मां और मौसी, अकेले से अपनेपन तक के रिश्ते जोडऩे का माध्यम बनता है किन्नरों का महासम्मेलन, परिवार से रिश्ता टूटने के बाद किन्नरों के सम्मेलनों में बनते हैं नए रिश्ते

3 min read
Google source verification
किन्नर महासम्मेलन में कलश यात्रा निकालती किन्नर

किन्नर महासम्मेलन में कलश यात्रा निकालती किन्नर

नागौर. जब कोई बच्चा जन्म लेता है, तो पहला रिश्ता मां-बाप से जुड़ता है, लेकिन किन्नर समुदाय के कई लोगों की ज़िंदगी में यह रिश्ता बहुत जल्दी टूट जाता है। समाज की संकीर्ण सोच, परिवार की झिझक और अस्वीकार्यता ने उन्हें अपने ही घर से बेघर कर दिया। पर कहानी यहीं खत्म नहीं होती, एक समाज ठुकराता है तो दूसरा समाज (किन्नर समाज) न केवल उन्हें अपनाता है, बल्कि उनकी शिक्षा-दीक्षा के साथ रिश्ते भी देता है। ऐसे रिश्ते, जो अंतिम समय तक आम रिश्तों से ज्यादा शिद्दत से निभाए जाते हैं, क्योंकि यहां जायदाद का बंटवारा नहीं होता।

किन्नर समाज के सम्मेलनों में जब वे एकत्र होते हैं, तो वहां सिर्फ तालियां नहीं बजतीं, दिल भी जुड़ते हैं। जिन्हें परिवार ने ठुकरा दिया, वे यहां नया परिवार पा लेते हैं। शुरुआत बहन के रिश्ते से होती है और फिर मां, मौसी, नानी, बुआ जैसे कई रिश्ते बन जाते हैं, ये रिश्ते खून से नहीं, पर दिल से जुड़े होते हैं। यहां रिश्तों का ‘पुनर्जन्म’ होता है। किन्नरों का यह संसार समाज की ओर से भले ही अलग-थलग हो, लेकिन भीतर से यह बेहद मानवीय है। जहां रिश्ते खून से नहीं, अपनाने से बनते हैं, जहां हर दर्द के बाद एक नया नाम, नया परिवार और जीने की नई वजह मिलती है।

जब घर से निकाले गए, तो ‘घर’ फिर समाज ने दिया

नागौर में आयोजित हो रहे अखिल भारतीय किन्नर महासम्मेलन में भाग ले रही अजमेर की गद्दीपति सलोनी बाई कहती हैं - ‘हमारे लिए खून के रिश्तों से ज्यादा महत्वपूर्ण दिल के रिश्ते हैं, जो इन्हीं सम्मेलनों में बनते हैं। इन सम्मेलनों में ही हमारे रिश्ते बनते हैं। जब किसी किन्नर को बहन बनाते हैं तो पंचों की मौजूदगी में एक गिलास से दूध पिलाया जाता है। भाई-बहन मां का दूध पीते हैं, लेकिन हम ऐसे सम्मेलन में एक गिलास से एक-दूसरे का जूठा दूध पीते हैं और वहीं से नए रिश्ते की शुरुआत होती है। जूठा दूध पीने से नई बहन मिलती है, इसके बाद मां, मौसी, बुआ के रिश्ते भी बन जाते हैं।

सम्मेलन बन गए ‘परिवारबनाने’ की जगह

मध्यप्रदेश से आई एक किन्नर ने बताया कि घरवालों ने मुझे बस इसलिए निकाल दिया क्योंकि मैं अलग थी। कई दिन सडक़ पर रही, फिर एक सम्मेलन में किसी ने मुझे अपने साथ रखा। आज मेरी गुरु मां है, और उनके आशीर्वाद से मैं अपनी पहचान के साथ जी रही हूं। ऐसी कहानियां देशभर के किन्नर सम्मेलनों में गूंजती हैं। नागौर, अजमेर, बीकानेर, जोधपुर, दिल्ली, जहां भी किन्नर समाज के ये वार्षिक सम्मेलन होते हैं, वहां सिर्फ संस्कृति और नृत्य का प्रदर्शन नहीं होता, वहां रिश्ते बनते हैं। कोई गुरु किसी नए चेले को अपना लेता है, कोई बहन किसी बेघर किन्नर को अपने साथ रहने का ठिकाना दे देती है।

अपनाते हैं और जीने की हिम्मत देते हैं

फरीदाबाद की गद्दी नसीन राखी बताती हैं कि ‘हमारे समाज में गुरु-चेला का रिश्ता सिर्फ परंपरा नहीं, सहारा है। जो अपने मां-बाप को खो देता है, वह यहां आकर फिर किसी का बच्चा बन जाता है। सम्मेलन वही जगह है, जहां हम एक-दूसरे को पहचानते हैं, अपनाते हैं और जीने की हिम्मत देते हैं।’ सम्मेलनों में आशीर्वाद, मिलन और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ-साथ नए रिश्ते चुनने की प्रक्रिया भी होती है। यह एक सामाजिक स्वीकृति की तरह है, जब कोई गुरु किसी व्यक्ति को ‘अपना’ कह देता है, तो वह अब समाज का हिस्सा बन जाता है, उसे नाम, पहचान और छत मिल जाती है।

सम्मेलन सिर्फ उत्सव नहीं - एक सामाजिक पुनर्जन्म

किन्नर सम्मेलनों को समाज अक्सर रंग-रूप और ताली से जोडक़र देखता है, पर असल में ये आयोजन उन टूटे हुए जीवनों को जोडऩे का काम कर रहे हैं, जिन्हें घर-परिवार ने तोड़ दिया। यहां हर नया चेहरा किसी गुरु की छांव में आता है, हर नई आत्मा किसी परिवार का हिस्सा बनती है। नागौर की खुशी कहती हैं, ‘माता-पिता के घर से निकले तो लगा कि सब खत्म हो गया। पर जब अपनी गुरु मां से मिली, तो लगा कि यह समाज मुझे समझता है, मुझे अपनाता है। अब मैं भी किसी को वही सहारा देना चाहती हूं।’