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किरायेदारी विवाद में रेंट कंट्रोलर का आदेश निरस्त, दिल्ली हाईकोर्ट ने मकान मालिक के पक्ष में सुनाया फैसला

Delhi High Court: दिल्ली हाईकोर्ट ने मकान मालिक और किराएदार में संबंध स्‍थापित करते हुए रेंट कंट्रोलर का आदेश रद्द कर दिया। इसके साथ ही मकान मालिक के पक्ष में बेदखली आदेश जारी किया।

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Delhi High Court quashed order Rent Controller in tenancy dispute Decision in landlord favour

किराएदारी विवाद में दिल्ली हाईकोर्ट का बड़ा फैसला।

Delhi High Court: दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में किरायेदारी के एक विवाद में रेंट कंट्रोलर के आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें संपत्ति पर कब्जा करने वाले लोगों को ‘लीव टू डिफेंड’ (जवाब दाखिल करने की अनुमति) दी गई थी। न्यायमूर्ति सौरभ बनर्जी की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने पाया कि वर्तमान कब्जेदार, जो कथित रूप से अनधिकृत उप-किरायेदार थे, कोई भी ऐसा ठोस या विचारणीय मुद्दा प्रस्तुत करने में असफल रहे, जो उनकी रक्षा के लिए पर्याप्त हो। इसके परिणामस्वरूप हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता मकान मालिकों के पक्ष में बेदखली का आदेश पारित किया।

पहले समझिए पूरा मामला क्या है?

लॉ ट्रेंड के अनुसार, याचिकाकर्ता मकान मालिक फरहीन इसराइल और अन्य, ने दिल्ली रेंट कंट्रोल एक्ट, 1958 की धारा 14(1)(ई) के तहत तीस हजारी कोर्ट के रेंट कंट्रोलर के समक्ष बेदखली याचिका दायर की थी। याचिका में उन्होंने प्रतिवादी नंबर 1 (मूल किरायेदार, गुलाम रसूल वानी) और प्रतिवादी नंबर 2 से 8 (वर्तमान कब्जेदार) को उनके परिसर (भूतल, फाटक धोबियान, फराश खाना, दिल्ली) से बेदखल करने की मांग की।

याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि उनके दादा ने 1947 में एक पंजीकृत बिक्री विलेख के माध्यम से संपत्ति खरीदी थी और मूल किरायेदार के पिता को कब्जा दिया था। बाद में प्रतिवादी परिवार ने कथित रूप से बिना अनुमति संपत्ति पर कब्जा कर लिया। मकान मालिकों ने यह भी तर्क दिया कि उनके लिए भूतल पर रहना जरूरी था क्योंकि याचिकाकर्ता नंबर 2 की पत्नी हाल ही में सिजेरियन सर्जरी से उभरी थीं और उन्हें सीढ़ियों से बचने की सलाह दी गई थी। साथ ही, उनके वर्तमान आवास की स्थिति जीर्ण-शीर्ण थी और कोई उपयुक्त वैकल्पिक आवास उपलब्ध नहीं था।

रेंट कंट्रोलर का आदेश और चुनौती

मूल किरायेदार को समाचार पत्र के माध्यम से समन तामील किया गया था, लेकिन उन्होंने ‘लीव टू डिफेंड’ के लिए आवेदन नहीं किया। हालांकि, प्रतिवादी नंबर 2 से 8 ने आवेदन दायर किया और मकान मालिकों के स्वामित्व और बोनाफाइड आवश्यकता (वास्तविक जरूरत) पर विवाद खड़ा किया। उन्होंने दावा किया कि 1947 का बिक्री विलेख गलत संपत्ति से संबंधित था और मकान मालिकों के पास वैकल्पिक आवास उपलब्ध था। 07 दिसंबर 2023 को रेंट कंट्रोलर ने मानते हुए कि एक विचारणीय मुद्दा उपस्थित है, प्रतिवादियों को ‘लीव टू डिफेंड’ की अनुमति दे दी। मकान मालिकों ने इस आदेश को हाईकोर्ट में पुनरीक्षण याचिका (RC.REV. 39/2024) के माध्यम से चुनौती दी।

दोनों पक्षों की दलीलें

याचिकाकर्ताओं के वकील ने कहा कि प्रतिवादी केवल अनधिकृत उप-किरायेदार थे और उनका कोई अधिकार नहीं कि वे मकान मालिकों के स्वामित्व को चुनौती दें। उन्होंने 1997 की रसीद पर रेंट कंट्रोलर के भरोसे को भी खारिज किया, क्योंकि उस पर आधारित मुकदमा पहले ही खारिज हो चुका था। वहीं, प्रतिवादी 2 से 8 के वकील ने कहा कि उन्होंने ठोस विचारणीय मुद्दा उठाया है और रेंट कंट्रोलर का आदेश उचित था।

हाईकोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष

न्यायालय ने सबसे पहले याचिका की स्वीकार्यता पर आपत्ति खारिज की और पाया कि प्रतिवादी नंबर 1 वास्तविक किरायेदार था, जिसने विरोध नहीं किया। प्रतिवादी 2 से 8 केवल अनधिकृत कब्जेदार थे और उनके आवेदन में कोई ठोस महत्व नहीं था। अदालत ने यह भी देखा कि प्रतिवादी एक ही समय में दोनों विरोधाभासी दलीलें दे रहे थे। एक तरफ वे 1997 की रसीद को आधार मानते थे और दूसरी तरफ 1947 के बिक्री विलेख को चुनौती देते थे।

हाईकोर्ट ने कहा कि यह परस्पर विरोधाभासी दलीलें प्रस्तुत करना न्यायिक प्रक्रिया के साथ संगत नहीं है। साथ ही, 1997 की रसीद के आधार पर उनका दावा पहले ही खारिज किया जा चुका था। इसलिए इसे दोबारा प्रस्तुत करना अनुचित था। अदालत ने मकान मालिकों की बोनाफाइड आवश्यकता और उनके वैकल्पिक आवास न होने को भी पर्याप्त पाया।

दिल्ली हाईकोर्ट ने सुनाया ये निर्णय

अंततः हाईकोर्ट ने यह निष्कर्ष निकाला कि रेंट कंट्रोलर का आदेश स्पष्ट रूप से त्रुटिपूर्ण था और प्रतिवादी कोई ठोस विचारणीय मुद्दा नहीं उठा सके। अदालत ने रेंट कंट्रोलर के 07.12.2023 के आदेश को रद्द कर दिया और याचिकाकर्ताओं के पक्ष में संपत्ति की बेदखली का आदेश पारित किया। हालांकि, अधिनियम की धारा 14(7) के अनुसार, कब्जे की वसूली का आदेश इस फैसले की तारीख से छह महीने बाद ही निष्पादित किया जा सकेगा। इस फैसले से यह स्पष्ट संदेश गया कि मकान मालिक-किरायेदार विवादों में केवल ठोस और वैध दलीलों को ही महत्व दिया जाएगा और अनधिकृत उप-किरायेदारों को न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग करने की अनुमति नहीं होगी।