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अच्छा छायाचित्र वही जिसे देखकर फिर से देखने का मन करे

डॉ. राजेश कुमार व्यास, संस्कृति कर्मी, कवि और कला समीक्षक

छायांकन दृश्यबंध कला है। एक दृश्य में और भी अनदेखे बहुत से दृश्यों को उद्घाटित करने की कला। कैमरा वहां प्रमुख नहीं होता, उससे दृश्य सिरजने वाला महत्त्वपूर्ण होता है। यह यथार्थ का अन्वेषण है। कैमरा बरतने वाला यदि कला-मन का होगा तो वह देखे-अदेखे की लय, गति और यति (ठहराव) को भी सौंदर्य प्रदान कर देगा।
विश्व छायांकन दिवस फोटोग्राफी से जुड़ी कला, इसके विज्ञान और इतिहास से ही नहीं जुड़ा है, यह इसमें निहित शिल्प का समर्पण है। कलाओं की वैदिक प्राचीन संज्ञा शिल्प कही गई है। शिल्प माने संगीत, नृत्य, नाट्य, वास्तु, चित्र और तमाम दूसरी कलाएं। शिल्प का अर्थ ही है, गढ़ना। सृजन के उत्स संग कौशल। छायांकन कला छवि में निहित सुंदर-असुंदर का भाव-भव है। सुप्रसिद्ध यूनानी कवि होमर ने भी कहा था, जो अभिनव है वही सुंदर है। छायांकन कला का सच भी यही है। मानव मन की संवेदनाओं, छाया-प्रकाश संयोजन और एक ही दृश्य में बहुत सा और भी जब चाहे आप वहां तलाश सकते हैं। अच्छा छायाचित्र वही होता है जिसे देखकर फिर से देखने का मन करे। छायांकन ही क्यों, दूसरी सभी कलाओं संग भी यही होता है। कुछ सुना और बार-बार सुनने का मन करे, नृत्य की कोई भंगिमा देखी और फिर से देखने को उत्सुक हों, प्रकृति को निहारा और फिर से उसके रंगों की लय में मन भटके-समझ लें वह अनुकरण नहीं अनुवर्तन है। माने गुणगान!

जर्मनी के ज्योतिर्विद और वैज्ञानिक जॉन हर्शेल ने 1839 ईस्वी में अपने एक मित्र को लिखे पत्र में पहले पहल फोटोग्राफी शब्द का इस्तेमाल किया था। इससे पहले 1826 में फ्रांसीसी आविष्कारक निप्से ने विश्व का पहला फोटोग्राफ लिया। इसे देखकर पेरिस में चित्रकला प्राध्यापक पॉल देला रोष ने कहा था कि चित्रकला आज से मर गई है। पर आज फोटोग्राफी चित्रकला को समृद्ध कर रही है। मुझे लगता है, दृश्य को पढ़ते बहुतेरी बार छायाकार उस नि:संग को भी पढ़ता है जिसमें मौन भी हमसे बतियाता है। इसीलिए कहा जाता है, हजारों-हजार शब्दों में जो नहीं कहा जा सकता वह एक छायाचित्र कह देता है। छायांकन कला दृश्य में निहित रंगों का पुनराविष्कार करती है। कैमरे में जो लेंस लगे होते हैं वह दृश्य में निहित रंगों में सुधार कर हमें परोसते हैं। माने वहां वस्तु, किसी मुद्रा में निहित प्रकाश कम-ज्यादा है तो उसे नियंत्रित कर इच्छित परिणाम ले सकते हैं। यही छायांकन की कला-साधना है।

राजा रवि वर्मा प्रात: चार बजे उठते और चित्र बनाते। क्यों? इसलिए कि तब भोर का उजास छा रहा होता और रात्रि के अंधकार का गमन हो रहा होता है। प्रकृति के इन रंगों की अनुभूति उन्होंने चित्रों में संजो ली। छायांकन में भी तो यही होता है! वामन ठाकर बड़े चित्रकार हुए पर चुना उन्होंने फोटोग्राफी को। कहते हैं, पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद स्वयं को फोटोजेनिक नहीं मानते थे। वह चाहते थे उनका ऐसा फोटो निकले जो सुंदर हो। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के ख्यातनाम छायाकारों ने प्रयास किया पर पार नहीं पड़ी। अंततः वामन ठाकर याद आए। वह पहुंचे और जो लोग राष्ट्रपति से मिलने आ रहे थे, उन्हें साथ बतियाते उन्हें देखते रहे। लंबा समय बीत गया। राष्ट्रपति ने कहा ‘तुम फोटो क्यों नहीं ले रहे हो?’ ठाकर ने कहा, ‘वही तो कर रहा हूं।’ फखरुद्दीन चौंके। असल में वामन उनके भांत-भांत के पोज देख रहे थे। अंततः एक पोज को कैमरे में उन्होंने संजो लिया। यह इतना सुंदर था कि वही बाद में सार्वजनिक प्रसारित हुआ।

कला की यही साधना है। किसी एक दृश्य में छायाकार घंटों तपता है या अनायास उसे लपक लेता है, तब कहीं वांछित पाता है। इसीलिए कहूं, छायांकन प्रकृति में घुले रंगो, दृश्य-छटाओं, व्यक्ति की भंगिमाओं से भरा-भाव भव है। छायांकन के सृजन स्रोतों पर जाएंगे तो संस्कृति, परंपरा, इतिहास को वहां ध्वनित होते पाएंगे। क्षण जो बीत गया है उसकी स्मृतियां भी झिलमिलाती वहां नजर आएंगी।