
ब्राजील के बेलम शहर में हो रहे कॉप-30 जलवायु सम्मेलन के लिए अमेजन के जंगलों में 1,00,000 पेड़ काट दिए जाने की खबर सिर्फ चौंकाती ही नहीं, बल्कि हमारे पर्यावरणीय विवेक पर सवाल उठाती है। विडंबना देखिए कि यह वही सम्मेलन है, जो जलवायु परिवर्तन के खतरों को रोकने और धरती को हरा-भरा बनाए रखने के संकल्पों पर केंद्रित है। ऐसे में एक लाख पेड़ों को काट देना इंसान की बड़ी बौद्धिक विफलता ही कही जाएगी। अमेजन को ‘धरती के फेफड़े’ कहा जाता है, क्योंकि यह हर वर्ष अरबों टन कार्बन डाइऑक्साइड को सोखकर वातावरण को संतुलित रखते हैं। मगर आज पर्यावरण बचाने के लिए चर्चा के नाम पर पेड़ों की बलि देना हमारे पर्यावरणीय पाखंड का जीवंत उदाहरण है।
कॉप सम्मेलन दुनिया के सैकड़ों देशों को एक मंच पर लाता है, ताकि जलवायु संकट पर ठोस नीतियां बनाई जा सकें। चिंता की बात यह है कि जब इस तरह के आयोजन की शुरुआत ही प्रकृति को नुकसान पहुंचाकर की जाए, तो इससे निकलने वाले संदेश पर विश्वास करना कठिन हो जाता है। एक लाख पेड़ दोबारा लगाने में केवल श्रम या पैसा नहीं, बल्कि दशकों लग जाएंगे। इन पौधों को पेड़ बनने में 15-20 वर्ष लगते हैं। इस बीच वह जितनी ऑक्सीजन, नमी और जीवन देते हैं, उसकी कोई भरपाई संभव नहीं है। यह घटना हमें याद दिलाती है कि पर्यावरण संरक्षण सिर्फ भाषणों, घोषणाओं या अंतरराष्ट्रीय बैठकों से नहीं होगा। इसके लिए हमें अपनी नीतियों और जीवनशैली में वास्तविक परिवर्तन लाना होगा। नेट-जीरो लक्ष्य तभी सार्थक होंगे जब विश्वास की योजनाएं प्रकृति की सीमाओं का सम्मान करें। इस सम्मेलन के लिए भी कंक्रीट की इमारतें खड़ी करने के बजाय, अस्थायी, पर्यावरण के अनुकूल संरचनाओं का उपयोग किया जा सकता है। विश्व समुदाय को अब ग्रीन डिप्लोमेसी की जगह ग्रीन एक्शन अपनाने की जरूरत है। इतना ही नहीं, पेड़ों की कटाई पर सख्त वैश्विक निगरानी व्यवस्था बने, और हर बड़े अंतरराष्ट्रीय आयोजन के लिए कार्बन ऑफसेट सर्टिफिकेट अनिवार्य हो। विकसित देशों को सिर्फ वादों पर नहीं, बल्कि तकनीकी और फंडिंग के माध्यम से विकासशील देशों की मदद करनी चाहिए। स्थानीय समुदायों, युवाओं और आदिवासियों को पर्यावरण नीति के केंद्र में रखना चाहिए, क्योंकि वे ही धरती के असली संरक्षक हैं। धरती ने हमें बहुत कुछ दिया है, अब उसे लौटाने की हमारी बारी है। जलवायु सम्मेलन तब ही सार्थक होगा जब उसमें पेड़ों की छांव में हम सचमुच प्रकृति को बचाने का रास्ता खोजें, न कि विश्वास के नाम पर सिर्फ भाषण ही दें।
यह आत्ममंथन का समय है। पर्यावरण की रक्षा का मतलब केवल सम्मेलन करना नहीं, बल्कि अपने भीतर वह संवेदना जगाना है जो हर पेड़ को जीव मानती है। यह हमारी संस्कृति हमें सिखाती है। हमें यह याद रखना चाहिए कि यदि जंगल खत्म होंगे, तो पूरी मानवता सांस नहीं ले पाएगी।
Updated on:
13 Nov 2025 12:40 pm
Published on:
13 Nov 2025 12:33 pm
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