
अपना जीवन खपाकर संतानों को काबिल बनाने वाले माता-पिता यही उम्मीद रखते हैं कि वे उनकी 'बुढ़ापे की लाठी' बनेंगे, लेकिन माता-पिता के प्रति बेरुखी इस कदर हो जाए कि संतानें उन्हें संपत्ति के लालच में अदालतों में घसीटने लगें तो दरकते संबंधों की भयावह तस्वीर ही सामने आती है। यह प्रवृत्ति महज कानूनी विवाद का विषय नहीं, बल्कि ऐसे पारिवारिक संबंधों की ओर संकेत करती है जहां संवेदनात्मक जुड़ाव की जगह संतानों के स्वार्थ और अधिकार की भाषा हावी होती दिखती है।
ऐसे ही एक मामले पर मुंबई हाईकोर्ट को तीखी टिप्पणी करनी पड़ी कि एक बेटा बुजुर्ग माता-पिता को श्रवण कुमार की तरह तीर्थयात्रा पर ले जाने की बजाय उन्हें अदालत में घसीट रहा है। इस प्रकरण में युवक ने माता-पिता को इलाज के लिए मुंबई आने पर उसके घर का इस्तेमाल करने से रोकने की याचिका दायर की थी, जिसे अदालत ने खारिज कर दिया।
एक अन्य मामले में राजस्थान हाईकोर्ट ने सख्ती दिखाते हुए संपत्ति विवाद में पिता के खिलाफ अपील दायर करने वाले बेटे पर हर्जाना लगाते हुए निर्णय दिया कि वयस्क बेटे-बेटी बिना पिता की अनुमति के उनकी स्वअर्जित संपत्ति पर कानूनी हक नहीं जमा सकते। अदालतों के ये फैसले संतानों की अपने माता-पिता के प्रति उपेक्षा भाव व उनकी संपत्ति पाने में लालच के भाव को इंगित करते हैं। एक समय था जब परिवार केवल रहने की व्यवस्था नहीं, बल्कि भावनात्मक सुरक्षा का केंद्र समझे जाते थे। माता-पिता व परिवार के अन्य बुजुर्गों की सलाह और अनुभव से ही घर की दिशा तय होती थी।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता की आड़ में बिखरते परिवारों ने इन संबंधों में जटिलताएं पैदा कर दी हैं। चिंताजनक तथ्य यह भी है कि ऐसे मामलों की संख्या बढ़ रही है, जहां संतानें अपने ही माता-पिता के खिलाफ उनकी संपत्ति में हिस्सेदारी, उनकी देखभाल के खर्च की भरपाई और घरेलू विवादों को लेकर अदालतों की चौखट पर जा रही हैं। जबकि यह हक उन माता-पिता का पहले है, जो अपनी संतानों की उपेक्षा व अनदेखी का शिकार हो रहे हैं। कानून भी इन्हें संरक्षण प्रदान करता रहा है लेकिन कानून भी न्याय भले ही दे दे, पर पारिवारिक रिश्तों में वह गर्माहट वापस नहीं ला सकता, जो सुखी परिवार के लिए जरूरी है। जाहिर है आपसी संवाद और बुजुर्गों का सम्मान करने से जुड़ा पारिवारिक ताना-बाना वक्त के साथ कमजोर होने लगा है। यही कारण है कि बुजुर्ग माता-पिता कई बार उपेक्षा, अकेलेपन और असुरक्षा से घिर जाते हैं।
दरअसल, ऐसे दौर में सामाजिक, नैतिक और शैक्षणिक स्तर पर व्यापक बदलाव जरूरी हैं। बच्चों में छोटी उम्र से ही घर और स्कूल दोनों ही स्तर पर परिवार संस्था की अहमियत, माता-पिता के प्रति कृतज्ञता और बुजुर्गों के प्रति जिम्मेदारी का भाव पैदा करना जरूरी है। वहीं पीढिय़ां एक-दूसरे को समझने की कोशिश करें, तो अदालतों तक पहुंचने की नौबत ही नहीं आएगी।
Published on:
17 Nov 2025 12:30 pm
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