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संपादकीय : जेलों में विचाराधीन बंदियों की चिंताजनक तस्वीर

भारतीय जेलों में 74 प्रतिशत कैदी ऐसे बंदी हैं, जिनका अपराध अभी साबित ही नहीं हुआ।

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कोई व्यक्ति अपराध करता है तो उसे जेल जाना पड़ता है। यह सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन जब यह जानकारी मिले कि भारतीय जेलों में 74 प्रतिशत कैदी ऐसे बंदी हैं, जिनका अपराध अभी साबित ही नहीं हुआ, तो चिंता की बात हो जाती है। ऐसे कैदी कोई साल-दो साल से नहीं, बल्कि लंबे समय से जेल में बंदी बनाए हुए हैं। हैरत की बात यह भी है कि इनमें से भी वे बंदी खासी तादाद में हैं, जिनकी अपराधी मूल सजा की अवधि तक बीत चुकी है। इतना ही नहीं, सजा पूरी होने के बाद भी विविध कारणों से जेल से रिहा न हो पाने वाले अनेक उदाहरण हैं। ऐसे कैदी भी बहुतायत में हैं, जिन पर जमानती अपराध दर्ज हैं फिर भी वे लंबे समय से जेल में हैं।

देश में जेलों और उनमें बंद कैदियों से जुड़े ये आंकड़े हाल ही सुप्रीम कोर्ट की ओर से जारी नालसार यूनिवर्सिटी के स्क्वायर सर्टिफाइड क्लीनिंग रिपोर्ट में सामने आए हैं। ये आंकड़े यों तो समय-समय पर सामने आते रहते हैं, लेकिन चिंताजनक तथ्य यह है कि जेलों में बिना सजा पाए बंद होने वाले कैदियों का आंकड़ा कम होने का नाम नहीं ले रहा। इन सभी श्रेणियों के कैदियों की हालत यह है कि देश की सभी जेलें खचाखच भरी हुई हैं। यानी क्षमता से भी ज्यादा। स्वाभाविक रूप से कैदियों की यह स्थिति उन्हें साथ अन्याय ही करेगी। उन कैदियों के साथ तो यह निश्चित तौर पर परतंत्रता ही होगी, जिन्हें सुनवाई के बाद पता लगेगा कि उन्होंने अपराध किया ही नहीं और वे बेवजह ही जेल में थे। ये आंकड़े इसलिए भी ज्यादा डराने वाले हैं क्योंकि सब-देश की शीर्ष अदालत के संज्ञान में होने के बावजूद कैदियों की यह स्थिति है। इसके लिए यों तो कई कारण जिम्मेदार हैं, लेकिन निचली अदालतों की जमानत देने में हिचकिचाहट भी एक हद तक जिम्मेदार है। सुप्रीम कोर्ट इस संबंध में कई बार निचली अदालतों को निर्देश भी दे चुका है। फिर भी ये अदालतें जमानती और गंभीर अपराधों में भी हल्के अनुरूप जमानत देने का निर्णय सामान्य तौर पर ऊपरी अदालतों पर छोड़ देती हैं। ऐसे में जो मामला निचले स्तर पर ही निपट सकता था, वह आगे के लिए टल जाता है। पूरी प्रक्रिया में जो समय लगता है, उसकी वजह से भी बंदियों की रिहाई में विलंब होता है। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार निचली अदालतों को यह जिम्मेदारी लेने को कहा है, लेकिन लगातार बढ़ते जा रहे उदाहरण दर्शाते हैं कि ऐसा हो नहीं रहा। अलग-अलग श्रेणियों के कैदियों, विशेषकर विचाराधीन कैदियों के लिए समयबद्ध व्यवस्था भी नहीं है कि अनुमानित अवधि में इनके मामलों में फैसला लिया जाएगा।

वस्तुतः मुकदमों के अंबार और अदालतों की कमी, और इनमें जजों का अभाव भी इस विलंब के लिए जिम्मेदार नहीं। सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार दोनों को इस पर गंभीरता से सोचना होगा। नई न्याय संहिता में इसे लेकर जो प्रावधान किए गए हैं, उनके नतीजे भी आने चाहिए। न्याय प्रणाली में विश्वास बनाए रखने के लिए इस दिशा में ठोस प्रयासों की जरूरत है।