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कलयुग के दशानन से लड़कर सच्ची विजय हासिल करें

मुकेश कुमार शर्मा, स्वतंत्र लेखक एवं शोधार्थी

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हर वर्ष दशहरे पर रावण का पुतला जलाकर हम यह मान लेते हैं कि अच्छाई ने बुराई पर विजय पा ली। किंतु यदि बुराई केवल बाहर ही है, तो हमारे समाज और जीवन में उसके नए-नए रूप बार-बार क्यों जन्म ले रहे हैं? यही प्रश्न हमें भीतर झाँकने को बाध्य करता है। त्रेता का रावण सोने की लंका में था, पर आज का रावण हमारे मन, आदतों और सामाजिक संरचना में छिपा है। इसी कारण उसके दस सिर अब और भी सूक्ष्म और खतरनाक रूपों में हमारे सामने खड़े हैं।

पहला सिर है मोबाइल का मोह, जिसने युवाओं के समय और ध्यान को बंधक बना लिया है। भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण (ट्राई, 2023) की रिपोर्ट बताती है कि युवा औसतन पाँच घंटे प्रतिदिन स्क्रीन पर बिताते हैं। यह वही मरीचि मृग है, जो साधना, अध्ययन और संवाद का अपहरण कर रहा है। यदि ध्यान और ऊर्जा ही न बचें, तो समाज का निर्माण किस आधार पर होगा? इसलिए डिजिटल अनुशासन और आत्मनियंत्रण समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

जब ध्यान और विवेक कमजोर होते हैं, तब अगला सिर– फेक न्यूज और डीपफेक का जाल और भी आसानी से हमला करता है। रायटर्स इंस्टीट्यूट (2023) के अनुसार, भारत में 70% लोग बिना सत्यापन के खबरें साझा करते हैं। यह लोकतंत्र की नींव को हिला देता है, क्योंकि संवाद की मर्यादा ही लोकतंत्र का आधार है। इसलिए तथ्य-जांच, विवेकशील दृष्टि और सत्यनिष्ठा लोकतांत्रिक स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य हैं। लेकिन गलत सूचना से आगे बढ़कर आज निजता पर अदृश्य हमले भी गंभीर चुनौती हैं। एल्गोरिद्म यह तय कर रहे हैं कि किसे नौकरी, ऋण या अवसर मिलेगा। जैसे मेघनाद अदृश्य होकर वार करता था, वैसे ही यह तंत्र हमारे अधिकारों का अपहरण कर रहा है। पुट्टस्वामी केस (2017) में सुप्रीम कोर्ट ने निजता को मौलिक अधिकार माना, किंतु ठोस क्रियान्वयन अभी बाकी है। यही वह बिंदु है जहाँ तकनीक और न्याय का संतुलन साधना अनिवार्य है।

जब निजता और स्वतंत्रता पर वार होते हैं, तब लोभ और उपभोक्तावाद का सिर भी सामने आता है। भारत का खुदरा बाजार ट्रिलियन डॉलर के पार जा चुका है, पर उसकी कीमत जल, जंगल और जमीन के रूप में चुकानी पड़ रही है। उपभोक्तावाद की यह स्वर्ण-लंका बाहर से चमकदार और भीतर से खोखली है। यदि विकास टिकाऊ बनाना है, तो संयम और सतत उपभोग ही उपाय हैं। इसी उपभोक्तावाद और निजता की असुरक्षा के साथ जुड़ता है साइबर अपराधों का खतरा। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी, 2023) बताता है कि भारत में साइबर अपराधों में 24% वृद्धि हुई है। इसका उत्तर केवल कठोर कानून नहीं, बल्कि डिजिटल साक्षरता और नागरिक सतर्कता भी है।

इन सबके बीच सबसे व्यापक असर डाल रहा है जलवायु परिवर्तन। बाढ़, सूखा और तापमान वृद्धि ने भारत को क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स (2022) में सबसे प्रभावित देशों में ला खड़ा किया है। यदि उपभोग और अपराध दोनों प्रकृति को निगलते रहेंगे, तो अगली पीढ़ी को हम विरासत में केवल विनाश ही देंगे। वहीं वर्तमान को खोखला कर रही है नशाखोरी। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स, 2022) की रिपोर्ट कहती है कि तीन करोड़ भारतीय नशे की चपेट में हैं। यह आँकड़े केवल स्वास्थ्य संकट नहीं, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक पूंजी के क्षरण का संकेत हैं।

परंतु केवल नशा ही नहीं, अहंकार का सिर भी आज जीवित है। सोशल मीडिया पर लाइक्स और फॉलोअर्स की दौड़ ने आत्ममूल्य को बाहरी मान्यता से बाँध दिया है। यही कारण है कि अवसाद और अकेलापन महामारी की तरह फैल रहे हैं। समाधान है विनम्रता और आत्मबोध। जब अहंकार से सत्ता जुड़ती है तो वह और भी खतरनाक हो जाता है। भ्रष्टाचार और धनबल का रावण लोकतंत्र को बंधक बना रहा है। जनता की आस्था तभी बचेगी जब शासन पारदर्शी और जवाबदेह हो। यही मार्ग रामराज्य की ओर ले जा सकता है।

और अंततः, सबसे भयावह सिर है रोबोटिक रावण, अर्थात कृत्रिम बुद्धिमत्ता। यह केवल तकनीकी सवाल नहीं, बल्कि मानव अस्तित्व का प्रश्न है। इसका समाधान है– मानव-केन्द्रित तकनीक, जिसमें सेवा और कल्याण लक्ष्य हों, न कि नियंत्रण और विनाश।

इन सभी उदाहरणों से स्पष्ट है कि रावण केवल एक ऐतिहासिक पात्र नहीं, बल्कि मानवीय अवगुणों का स्थायी प्रतीक है। यदि दशहरे की अग्नि में हम केवल पुतले जलाएँ और भीतर के दोष जीवित रखें, तो विजयादशमी केवल उत्सव बनकर रह जाएगी। असली विजय तब होगी जब हम मोबाइल मोह से अनुशासन, फेक न्यूज से सत्य, उपभोग से संयम, नशे से जागरूकता, राजनीति से पारदर्शिता और तकनीक से नैतिकता की ओर बढ़ें।