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संपादकीय : युद्ध के बदलते स्वरूप में स्वदेशी तकनीक अनिवार्य

आज का वैश्विक परिदृश्य अस्थिरता और युद्ध की आशंकाओं से घिरा हुआ है। अमरीका, रूस, इजरायल जैसे देश अपने सैन्य तंत्र को लगातार उन्नत कर रहे हैं। भारत भी इस दौड़ में पीछे नहीं है। हम न केवल अत्याधुनिक हथियारों का निर्माण कर रहे हैं, बल्कि अब विदेशी बाजारों में रक्षा उपकरणों का निर्यात भी […]

आज का वैश्विक परिदृश्य अस्थिरता और युद्ध की आशंकाओं से घिरा हुआ है। अमरीका, रूस, इजरायल जैसे देश अपने सैन्य तंत्र को लगातार उन्नत कर रहे हैं। भारत भी इस दौड़ में पीछे नहीं है। हम न केवल अत्याधुनिक हथियारों का निर्माण कर रहे हैं, बल्कि अब विदेशी बाजारों में रक्षा उपकरणों का निर्यात भी कर रहे हैं। साल दर साल रक्षा बजट में बढ़ोतरी इसी दिशा में एक सशक्त कदम है। फिर भी एक सवाल उठता है कि क्या यह तैयारियां पर्याप्त है?

मुख्य रक्षा अध्यक्ष (सीडीएस) जनरल अनिल चौहान की हालिया टिप्पणी इस चुनौती को सही रूप में रेखांकित करती है। उनका कहना है कि आज के जटिल युद्धों में पुराने हथियारों से जीत की अपेक्षा करना व्यर्थ है। यह समय है जब भारत को भविष्य की तकनीकों से लैस होना होगा और रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता को नई ऊंचाइयों पर ले जाना होगा। ऑपरेशन सिंदूर के दौरान पाकिस्तान द्वारा ड्रोन के इस्तेमाल ने स्पष्ट कर दिया है कि भविष्य के युद्धों की दिशा क्या होगी। भले ही अधिकतर ड्रोन हमने नष्ट कर दिए हों, लेकिन यह चेतावनी देने के लिए काफी हैं कि भारत को ड्रोन और काउंटर-ड्रोन तकनीक में महारत हासिल करनी होगी। अब युद्ध केवल सीमाओं पर नहीं लड़े जाते, वे तकनीक, सूचना और डेटा के मोर्चों पर भी लड़े जा रहे हैं। ऐसे में अनमेंड एरियल व्हिकल (यूएवी) और काउंटर-अनमेंड एरियल सिस्टम (सी-यूएएस) जैसी तकनीकों में आत्मनिर्भरता ही हमारी असली सुरक्षा कवच बन सकती है। स्वदेशी तकनीकों का विकास केवल आत्मनिर्भर भारत के सपने को साकार करने के लिए नहीं, बल्कि रणनीतिक स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए भी जरूरी है। विदेशी तकनीकों पर निर्भरता हमारी सुरक्षा नीति को कमजोर बनाती है और आपात स्थितियों में निर्णय लेने की गति को बाधित कर सकती है।

अब समय आ गया है कि भारत रक्षा क्षेत्र में अनुसंधान, नवाचार और उत्पादन के नए मानक स्थापित करे। निजी क्षेत्र और स्टार्टअप्स को भी इस अभियान में भागीदारी देनी होगी। जब तक हम तकनीकी मोर्चे पर आत्मनिर्भर नहीं होंगे, तब तक युद्ध क्षेत्र में श्रेष्ठता पाना मुश्किल रहेगा। भारत को न केवल युद्ध के लिए तैयार रहना है, बल्कि युद्ध की दिशा तय करने वाला राष्ट्र बनना है और यह तभी संभव है जब हम तकनीकी दृष्टि से स्वावलंबी बनें।