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आरबीआइ की सिफारिशों से ईपीएफओ के वित्तीय प्रबंधन में सुधार की उम्मीद

डॉ. पी.एस. वोहरा, आर्थिक मामलों के जानकार

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भारत में इन दिनों भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की ओर से कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (ईपीएफओ) को उससे वित्तीय संचालन की नीतियों से संबंधित दिए गए कुछ गहन दिशा-निर्देश व सुझाव चर्चा में हैं। इस बात की सुगबुगाहट भी है कि आने वाले समय में आरबीआई, ईपीएफओ के सभी वित्तीय संचालन की नीतियों का अपने हिसाब से संचालन करना शुरू भी कर सकता है, जो भारतीय वित्तीय संस्थानों, पूंजी बाजार आदि में एक नए युग की शुरुआत होगी। उल्लेखनीय है कि फरवरी 2025 में खुद भारत सरकार के श्रम व रोजगार मंत्रालय ने कर्मचारी भविष्य निधि संगठन की विभिन्न वित्तीय नीतियों से संबंधित दिशा-निर्देशों के लिए केंद्रीय बैंक को अनुरोध किया था।
इस संबंध में श्रम व रोजगार मंत्रालय का मुख्य उद्देश्य ईपीएफओ की मौजूदा वित्तीय प्रबंधन की नीतियों का आकलन करना था ताकि विभिन्न प्रकार के जोखिमों को चिह्नित किया जा सके। इसके अलावा श्रम व रोजगार मंत्रालय, ईपीएफओ की विभिन्न लेखांकन और प्रशासनिक प्रक्रियाओं की समीक्षा भी चाहता था तथा भविष्य निधि, पेंशन व बीमा के लिए अलग-अलग वित्तीय निवेश की रणनीति भी। अब आरबीआई ने इस संदर्भ में विभिन्न दिशा-निर्देशों को प्रस्तुत किया है। गौरतलब है कि ईपीएफओ वर्तमान में किसी तरह के आर्थित घाटे में नहीं है, परंतु मुख्य समस्या यह आ रही है कि ईपीएफओ को सरकारी प्रतिभूतियों से मिलने वाला रिटर्न लगातार कम होता जा रहा है। जबकि उसे लगातार अपने अंशधारकों व सदस्यों को अच्छा और अधिकतम ब्याज दर देनी है, जो कि देश में सामाजिक सुरक्षा के हिसाब से उसका मुख्य उद्देश्य भी है।
एक रिपोर्ट के आंकड़ों के मुताबिक पिछले 7 वर्षों में सरकारी प्रतिभूतियों में किए गए निवेश से औसतन रिटर्न 6.8 प्रतिशत ही मिला है जबकि ईपीएफओ ने ब्याज की औसतन दर 8.4 प्रतिशत रही है। पिछले वित्तीय वर्ष 2024-25 में ईपीएफओ ने 8.25 प्रतिशत की ब्याज दर दी जबकि सरकारी प्रतिभूतियों से उसे मात्र 6.86 प्रतिशत का ही मुनाफा हुआ। दरों का यह अंतर ही ईपीएफओ पर लगातार वित्तीय दबाव बना रहा है। वर्ष 2015 में यह करीब 6 लाख करोड़ रुपये था, जो कि वर्ष 2024 के अंत तक 24.75 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया।
आरबीआई द्वारा प्रस्तुत किए गए दिशा-निर्देशों में मुख्य बिंदुओं के तौर पर चार बातें सामने आई हैं। पहले बिंदु के अंतर्गत कर्मचारी भविष्य निधि संगठन को प्रोविडेंट फंड, पेंशन व बीमा तीनों के संबंध में अलग-अलग वित्तीय निवेश की नीतियां बनानी चाहिए न कि मात्र एक नीति से ही तीनों का वित्तीय संचालन किया जाए। दूसरे बिंदु के अंतर्गत ईपीएफओ को अपने द्वारा किए गए वित्तीय निवेश पर होने वाले घाटे को भी अपने लेखांकन में दर्ज करना चाहिए जो कि अब तक उसे द्वारा नहीं किया जाता है। तीसरे बिंदु के अंतर्गत दूरगामी सोच को ध्यान में रखते हुए आरबीआई द्वारा ईपीएफओ की नियामक तौर पर कार्य विधियां और वित्तीय निवेश से संबंधित नीतियों व उन्हें क्रियान्वयन को अलग-अलग करने की सोच पर काम करना होगा। चौथे बिंदु के अंतर्गत पीएफ को सरकारी प्रतिभूतियों में वित्तीय निवेश को तुलनात्मक रूप से कम करके पूंजी बाजार में इक्विटी के अंतर्गत निवेश को बढ़ाने की सलाह दी गई है ताकि पिछले लंबे अरसे से सरकारी प्रतिभूतियों से कम मिलने वाली आय का जो दबाव बना हुआ है, इक्विटी में निवेश उसे विकल्प बना सके। इन सुझावों को अमल में लाने के लिए उच्चस्तरीय समिति का गठन भी किया गया है।
यह समझना भी आवश्यक है कि ईपीएफओ के अंतर्गत वर्ष 1952 से प्रोविडेंट फंड की योजना, वर्ष 1976 से बीमा योजना और वर्ष 1995 से पेंशन योजना को जोड़ा गया, ताकि समाज में सामाजिक और आर्थित सुरक्षा में किसी भी पक्ष पर कोई कमी न रहे। लेकिन वर्तमान में ईपीएफओ से किसी भी कर्मचारी की मृत्यु पर बीमा से मिलने वाले प्रतिफल की अधिकतम राशि मात्र 6 लाख रुपए ही है, जो कि कर्मचारी की मृत्यु के बाद उसके परिवार के लिए बहुत कम आर्थित सुरक्षा है। अब सोचना यह होगा कि आज के दौर में जहां भारत तेजी से वैश्विक स्तर पर अपनी बढ़त बना रहा है तो वहां समाज में सामाजिक सुरक्षा के लिए इन मूल्यों में बढ़ोतरी क्यों न की जाए। ये सब संभव है, अगर भविष्य निधि संगठन अपने अंशधारकों के वित्तीय अंशदान को आकर्षक जगह निवेश करे।