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ट्रंप की बौखलाहट बनाम भारत की रणनीतिक दृढ़ता

विनय कौड़ा , अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार

डॉनल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका की पाकिस्तान नीति में आया ताजा बदलाव एक भूचाल से कम नहीं है।
भले ही भारत-अमेरिका संबंधों की दशकों पुरानी साझेदारी रही हो, लेकिन तेजी से बदलते हालात में वाशिंगटन द्वारा पाकिस्तान के ऊर्जा क्षेत्र में निवेश और वहां के विशाल तेल भंडार के विकास संबंधी दावे ने न केवल नई भू-राजनीतिक आशंकाएं पैदा की हैं, बल्कि भारतीय हितों के समक्ष तगड़ी चुनौतियां भी खड़ी कर दी हैं। यह घटनाक्रम स्पष्ट रूप से एक व्यापक शक्ति-खेल का हिस्सा है, जहां अमेरिका का पाकिस्तान के प्रति झुकाव और भारत के खिलाफ दबाव का माहौल दोनों देशों के द्विपक्षीय रिश्तों के लिए चुनौती पेश कर रहा है।

ट्रंप ने जब सोशल मीडिया पर पाकिस्तान और अमेरिका के बीच ऊर्जा सहयोग के सपनों को उजागर किया तो पूरी दुनिया के सामने इसे बड़े ही आकर्षक व्यापारिक अवसर के रूप में प्रस्तुत किया गया। दावा यह है कि अमेरिकी कंपनियां पाकिस्तान के स्थित विशाल तेल भंडार में निवेश करेंगी और शायद भविष्य में भारत भी पाकिस्तान से कच्चा तेल खरीद पाएगा। लेकिन सच्चाई बिल्कुल अलग है।

पाकिस्तान के पास सिद्ध कच्चे तेल का स्टॉक केवल 353 मिलियन बैरल है, जो वैश्विक भंडार का नाममात्र अंश है। वह आज भी अपनी 85 प्रतिशत से अधिक तेल जरूरतें मध्य-पूर्व पर ही निर्भर होकर पूरी करता है और उसकी आंतरिक तेल उत्पादन क्षमता उसकी रोजमर्रा की आवश्यकता का सिर्फ 15 प्रतिशत ही पूरी करती है। हाल के वर्षों में कराची और बलूचिस्तान तटवर्ती क्षेत्रों में कुछ संभावित हाइड्रोकार्बन संरचनाओं के चिह्न जरूर मिले हैं पर सच तो यही है कि यहां का भंडारण एवं उसका व्यावसायिक शोधन और उत्पादन अभी एक स्वप्न से अधिक कुछ नहीं।

जाहिर है कि अमेरिकी निवेश दरअसल पाकिस्तान को तत्कालिक आर्थिक राहत देने के लिए नहीं, बल्कि भारत और चीन दोनों को संतुलित करने तथा दबाव में लेने के लिए किया जा रहा है।

इस नीति का सीधा असर भारत के लिए कई स्तरों पर परेशानियां लेकर आया है। सबसे पहले देखें तो ऊर्जा के क्षेत्र में भारत, निरंतर विविध स्रोतों पर निर्भरता कायम करने का प्रयास करता रहा है और हालिया वर्षों में उसने रूस से भी सस्ते कच्चे तेल की आपूर्ति को प्रोत्साहित किया है। यही नहीं, इस साल के आरंभ से तो भारत ने अमेरिका से भी अपने तेल आयात में इजाफा किया है। लेकिन ट्रंप प्रशासन का पाकिस्तान को संभावित ऊर्जा केंद्र के रूप में बढ़ावा देना भारत पर अप्रत्यक्ष दबाव बनाने जैसा है, जिससे भारत को भविष्य में अपनी ऊर्जा नीति में बदलाव का दबाव महसूस हो।

इसके अलावा पाकिस्तान की तरफ अमेरिका का झुकाव और साथ ही भारत के निर्यात पर 25 प्रतिशत टैरिफ की घोषणा, भारतीय उद्योग और व्यापार पर सीधा प्रहार है। इस कदम ने दोनों देशों की व्यापार वार्ता को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। कृषि, फार्मा, टेक्सटाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स सभी क्षेत्रों में भारत को नुकसान की आशंका बनी हुई है।

इस पूरे घटनाक्रम का सबसे महत्त्वपूर्ण संदेश कूटनीतिक स्तर पर निहित है। पाकिस्तान से ऊर्जा संबंधी गठजोड़ की घोषणा और भारत पर आर्थिक दबाव का एक साथ आना यह स्पष्ट करता है कि अमेरिका अब भारत को प्राथमिक मित्र की बजाय नियंत्रित करने योग्य भागीदार के रूप में देख रहा है — विशेषकर तब, जब अमेरिकी दबाव के बावजूद भारत एक स्वतंत्र कूटनीतिक रुख पर अडिग है।

पाकिस्तान के लिए एक नई भूमिका गढ़ी जा रही है, जहां अमेरिका निवेश की आड़ में उसकी राजनीतिक-सैन्य व्यवस्था को सुदृढ़ करने, अफगानिस्तान के पेचीदा समाधान में उसे फिर से सहभागी बनाने और चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव को संतुलित करने की दिशा में सक्रिय हो गया है। हालांकि, पाकिस्तान की वर्तमान आर्थिक बदहाली, विदेशी कर्ज का भार, ऊर्जा संकट और बलूचिस्तान में गहराती अशांति यह दर्शाती है कि यह निवेश जनहित से अधिक भू-राजनीतिक सौदेबाजी और क्षेत्रीय नियंत्रण की रणनीति का हिस्सा है।

इसी रणनीतिक पृष्ठभूमि में पाकिस्तान भी अमेरिका को यह भरोसा दिलाने में जुटा है कि वह क्षेत्रीय सुरक्षा और वैश्विक भू-रणनीतिक संतुलन में एक अपरिहार्य एजेंट है।

वैसे भारत ने ट्रंप की अनर्गल बयानबाजी पर कड़ा रुख अख्तियार करते हुए उनकी बेतुकी नीतियों के खिलाफ जवाबी कदम की तैयारी आरंभ कर दी है। अमेरिकी कंपनियों पर डिजिटल टैक्स लगाने और डेयरी-खेती क्षेत्रों में ज्यादा सख्ती पर विचार मंथन हो चुका है। वाणिज्य मंत्री सार्वजनिक तौर पर यह कह चुके हैं कि भारत अपने औद्योगिक, कारोबारी और रणनीतिक हितों की रक्षा करने के लिए सक्रिय रहेगा।

इन सबके बीच भारत की दीर्घकालिक विदेश नीति की परीक्षा भी हो रही है। ऊर्जा संवाद में रूस, ईरान, वियतनाम जैसे देशों के साथ साझेदारी गहराने और बहुध्रुवीय स्वतंत्र विदेश नीति अपनाने की उसकी प्रतिबद्धता एक बार फिर प्रासंगिक हो उठी है।

आने वाले वर्षों में भारत को एक धैर्यवान, संतुलित और अपेक्षित ‘गैर-प्रतिबद्ध विदेश नीति’ की आवश्यकता होगी। उसे स्पष्ट करना होगा कि वह वैश्विक राजनीति के किसी एक ध्रुव का मोहताज नहीं, बल्कि सार्थक सहयोग का पक्षधर है। भारत को अपनी रणनीतिक स्वतंत्रता, ऊर्जा सुरक्षा और अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए आंतरिक सुधार, विविध साझेदारी और परिपक्व कूटनीति का रास्ता अख्तियार करना ही होगा। केवल तभी वह अमेरिका-पाकिस्तान के हालिया समीकरण से उत्पन्न चुनौतियों का सामना कर सकेगा और अपने दीर्घकालिक वैश्विक हितों की रक्षा कर सकेगा।