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Dussehra 2025 : एमपी के इस इलाके में नहीं होता रावण दहन, प्राचीन काल से जुड़ी है ये परंपरा

Dussehra 2025 : धार्मिक आस्था और परंपराओं की अद्वितीय नगरी के रूप में दुनियाभर में जाने-जाने वाले दशहरा पर्व का उत्सव हर्षोल्लास और भव्य ढंग से परंपरा के साथ मनाया जाता है, लेकिन इस नगरी की एक विशेषता और है...।

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खंडवा

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Faiz Mubarak

Oct 01, 2025

Dussehra 2025

ओंकारेश्वर में नहीं होता रावण दहन (Photo Source- Patrika)

Dussehra 2025 :मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में स्थित ओंकारेश्वर भगवान शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक, धार्मिक आस्था और परंपराओं की अद्वितीय नगरी के रूप में दुनियाभर में जाना जाता है, जहां विजयादशमी (दशहरा) पर्व का उत्सव पूरे हर्षोल्लास और भव्य परंपरा के साथ मनाया जाता है, लेकिन इस नगरी की एक विशेषता है कि यहां कभी रावण दहन नहीं किया जाता। ऐसी किवदंती और प्रचलित मान्यता के अनुसार, ओंकारेश्वर से 10 किलोमीटर के दायरे में स्थित किसी भी गांव में रावण दहन नहीं होता। प्राचीन काल से चली आ रही इस परंपरा को आज भी यहां के लोग मानते हैं।

साल 2013 में समीपवर्ती ग्राम शिवकोठी के कुछ युवाओं ने रावण का पुतला बनाकर उसका दहन किया था। लेकिन इसके बाद पूरे गांव में भयानक विवाद खड़ा हो गया। गांव दो भागों में बंट गया, महिलाएं आपस में बोलचाल बंद कर बैठीं और पुरुषों ने भी एक-दूसरे से मेल-मिलाप बंद कर दिया। धार्मिक कार्यक्रमों में आना-जाना रुक गया और गांव का सामाजिक ताना-बाना टूट गया। अंततः गांव के बुजुर्ग आगे आए, समझौता कराया और यह संकल्प लिया कि भविष्य में गांव में कभी रावण दहन नहीं होगा।

क्यों नहीं होता रावण दहन ?

ओंकारेश्वर के लोगों का मानना है कि रावण भगवान शिव का परम भक्त था। उसने भगवान को प्रसन्न करने के लिए अपने ही सिर भगवान को अर्पित कर दिए थे। इसीलिए यहां रावण दहन की परंपरा नहीं रही। हालांकि स्थानीय पुजारियों और विद्वानों का कहना है कि यह केवल भक्ति का कारण नहीं है। ओंकारेश्वर पंडा संघ के अध्यक्ष पंडित निलेश पुरोहित के अनुसार, रावण दहन में काफी खर्च होता है, इस वजह से भी लोग इसे नहीं करते। वहीं मंदिर के सायंकालीन पुजारी पंडित डंकेश्वर दीक्षित बताते हैं कि यह परंपरा बहुत पुरानी है और नगरवासियों ने इसे पीढ़ियों से निभाया है।

दशहरा उत्सव की परंपरा

रावण दहन न होते हुए भी विजयादशमी का पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। भगवान ओंकारेश्वर की भव्य सवारी मंदिर परिसर से शाम 7 बजे पूजन-अर्चन और आरती के बाद निकलती है। सवारी नगर के मुख्य बाजार होते हुए खेड़ापति हनुमान मंदिर पहुंचती है, जहां पर सामी वृक्ष (शमी वृक्ष) की पूजा होती है। इसके बाद भगवान की सवारी मंदिर लौटती है और फिर नगरवासी राजमहल पहुंचते हैं।

दशहरा मिलन समारोह में भाईचारे और सौहार्द का संदेश

राजमहल में राजा राव पुष्पेंद्रसिंह गद्दी पर बैठाए जाते हैं। इलाके की नगर की जनता उन्हें विजयादशमी की शुभकामनाएं देती है और बदले में राजा अपनी प्रजा को श्रीफल और प्रसाद देकर आशीर्वाद देते हैं। ये नजारा अपने आप में एक अनूठा दशहरा मिलन समारोह बन जाता है, जहां आपसी भाईचारे और सौहार्द का संदेश दिया जाता है।

यहां बुराइयां दहन होती हैं, रावण नहीं

ओंकारेश्वर में विजयादशमी का मूल संदेश ये है कि, बाहरी रावण को जलाने की जगह, इंसान को अपने भीतर की बुराइयों को खत्म करना चाहिए। यहां दशहरे के दिन प्रतीकात्मक रूप से यह माना जाता है कि रावण की बुराइयां ही जलती हैं, जबकि पुतला दहन की परंपरा नहीं निभाई जाती।,ओंकारेश्वर की ये अनूठी परंपरा बताती है कि त्योहार का असली महत्व सिर्फ दिखावे या पुतला जलाने में नहीं, बल्कि उसके पीछे के संदेश को समझने में है। यहां दशहरा पर्व भगवान ओंकारेश्वर की सवारी, राजपरिवार के साथ मिलन और आपसी भाईचारे के उत्सव के रूप में मनाया जाता है। यही कारण है कि ओंकारेश्वर और उसके आसपास के गांवों में आज भी रावण दहन नहीं होता और यह परंपरा लोगों की आस्था और विश्वास के साथ जीवित है।