मौसमी चक्र में आ रहा यह अप्रत्याशित बदलाव जलवायु परिवर्तन का संकेत तो है ही, जिसके चलते देश को पिछले दिनों जरूरत से ज्यादा बारिश या कम समय में अत्यधिक बारिश का सामना करना पड़ा है। इस भीषण बारिश के चलते जहां देश के अधिकांश हिस्से बाढ़ और जलभराव की समस्या से जूझने को विवश हुए, वहीं वर्षा जलजनित दुश्वारियों से भी बेहाल दिखे। वह बात दीगर है कि बारिश के भीषण कहर से देश के मैदानी इलाके भी अछूते नहीं रह सके। मैदान में लगातार बारिश का कहर इसी का नतीजा रहा। इस बार तो आफत की बारिश की मार ने राजस्थान तक को नहीं बख्शा। दो सक्रिय पश्चिमी विक्षोभ, हरियाणा में चक्रवाती स्थितियां, बंगाल की खाड़ी में बने निम्न दबाव के क्षेत्र ने हालत को और विषम बना दिया।
इसमें किंचित भी संदेह नहीं है कि अब भारतीय मानसून की प्रकृति बदल रही है। कभी सूखे जैसी स्थिति और कभी रिकॉर्ड तोड़ वर्षा का सामना अब आम होता जा रहा है। महासागरीय परिस्थितियां और क्षेत्रीय दबाव तंत्र मिलकर मानसून को अप्रत्याशित बना रहे हैं। भीषण बारिश की मार झेल रहे इन राज्यों में भूस्खलन की जितनी अधिक घटनाएं हुईं, वह एक रिकॉर्ड है। यह सब अनियोजित विकास, अनियंत्रित निर्माण और पहाड़ी राज्यों में पहाड़ हो या नदियों या प्राकृतिक संसाधनों से अनावश्यक छेड़छाड़ का नतीजा है। दरअसल इस बार इस विनाश का अहम कारण पूर्वी-पश्चिमी हवाओं की टक्कर तो है ही, जबकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, पहले भी ऐसा हुआ है, पर इस बार कुछ ज्यादा ही हुआ है।
दो पश्चिमी विक्षोभ लंबे समय तक इस क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं और बंगाल की खाड़ी में निम्न दबाव का क्षेत्र भी काफी समय तक बना रहा है। सबसे अहम परिवहन, उद्योग, वनों का कटाव वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों का बड़ा कारण है, जिससे पृथ्वी का वैश्विक तापमान बढ़ता है। फिर इस इलाके में ज्यादा बारिश का होना भी एक कारण रहा है, कमजोर आधारभूत ढांचों का निर्माण और जल निकासी का समुचित उपाय न किया जाना भी अहम वजह रही है। इसके साथ ही साथ एलनीनो जैसी प्राकृतिक घटनाएं भी मौसम को प्रभावित करती हैं। इसका दुष्परिणाम भारत समेत दूसरे देशों में सूखे का कारण बनता है। असलियत में मौजूदा मौसमी बदलाव महासागरीय हालातों से जुड़ा हुआ है। प्रशांत महासागर में एलनीनो कमजोर पड़ चुका है। ला-नीना के आसार हैं। यह हालात मानसून को और अधिक सक्रिय करते हैं। सितंबर के महीने में बारिश की भयावहता की यही मुख्य वजह रही। ऐसे हालात में देश की स्वास्थ्य एजेंसियों का दायित्व काफी बढ़ जाता है। उन्हें ज्यादा सतर्कता का परिचय देना चाहिए।
सबसे बड़ी परेशानी की बात यह है कि मौसमी बीमारियों को वायरल, डेंगू, मलेरिया का साथ मिल रहा है। फिर टायफायड के मामले भी बढ़े हैं। डब्ल्यूएचओ के अनुसार हर साल दुनियाभर में 6.5 लाख लोग इन्फ्लूएंजा की वजह से मौत के मुंह में चले जाते हैं। मौसमी बीमारियों के साथ-साथ हमें डेंगू और मच्छर जनित बीमारियों के खिलाफ भी युद्ध स्तर पर काम करना होगा। वैसे स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस बाबत राज्यों को सतर्कता बरतने के निर्देश दे दिए हैं लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि मच्छरों को पनपने ही नहीं दिया जाए और डेंगू व मलेरिया पर प्रभावी नियंत्रण के लिए निवारक उपाय अपनाए जाएं। तभी मौसम की मार के दौर में इन बीमारियों पर अंकुश लगाया जा सकता है।
Updated on:
07 Oct 2025 06:14 pm
Published on:
07 Oct 2025 06:12 pm
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