‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’। सचमुच ऐसा ही है। हमारी यह पहचान क्यों नहीं मिटती और इस देश की संजीवनी क्या है? उसका जवाब तलाशा जाए तो कहा जा सकता है कि हमारे देश के जन-जीवन में आनंद की व्याप्ति इस तरह हुई है कि कोई दिन किसी पर्व-उत्सव के बिना नहीं रहता। कल हम देश की आजादी के 78 वर्ष पूरे करने जा रहे हैं। श्रद्धेय कुलिश जी ने तीस बरस पूर्व अपने आलेख में देश की वह खासियत बताई थी, जिनकी वजह से हमारी हस्ती अर्थात अस्तित्व मिटता नहींं। आलेख के अंश:
इस देश की रचना में ऐसे कौनसे तत्व हैं, जिनके कारण इसका जीवट क्षीण हो जाने के बावजूद खत्म नहीं होता। संसार में कितने ही साम्राज्य एवं कितनी ही सभ्यताएं समाप्त हो गईं। भारत ने कभी किसी देश पर आधिपत्य नहीं जमाया, अत: साम्राज्य तो कहीं फैला ही नहीं, परन्तु सभ्यता और संस्कृति के रूप में जो जीवनशैली अपनाई, वह यथेष्ट रूप से वर्तमान में भी उपलब्ध है। देश की सीमा में साम्राज्य अवश्य रहे हैं, परन्तु इसमें सत्ता पक्ष की तुलना में सांस्कृतिक पक्ष ही मुख्य रहा। प्राचीनकाल की बात छोड़ भी दें तो मध्यकाल में विक्रमादित्य, चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक आदि चक्रवर्ती सम्राटों का शासन रहा, परन्तु वे इस देश की विशिष्ट सांस्कृतिक धारा में ही पुष्पित-पल्लवित हुए। हमारी राजनीतिक दृष्टि भी भूगोल की सीमाओं में बद्ध नहीं रही बल्कि नीति को ही राज्य का आधार और संस्कृति को ही देश की पहचान माना गया। कितने ही साम्राज्य अपने देश में स्थापित और उत्थापित हुए। कितने ही साम्राज्य विदेशियों ने यहां आकर कायम किए परन्तु देश की चाल-ढाल या जीवनशैली नहीं बदली। प्रत्येक बदलते दौर में एक तबका सदैव ऐसा रहा जो समय या साम्राज्य के साथ बदलता रहा। परन्तु वह भी देश की मूल पहचान से अवश्य जुड़ा रहा। देश की सांस्कृतिक जीवनधारा निरंतर प्रवाहित रही, अखण्ड रही। इस अखण्डता या निरंतरता के पीछे वह कौनसी शक्ति है? इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो उत्तर कोई एक नहीं होगा। कहा जा सकता है कि वेद ही इस देश की मुख्य शक्ति है। वेदों ने देश में जो समाज व्यवस्था कायम की, जो ग्राम रचना का स्वरूप दिया, स्त्री को परिवार की धुरी के रूप में स्थिर किया और जीव जगत के प्रति जो दृष्टि प्रदान की वही इस देश को स्थिर बनाए हुए है। देश की प्रजा में वेद ने जो अमृतभाव का संचार किया उसी के बल पर इसका जीवन- रस कभी सूखता नहीं। यह पहचान ही भारत को अन्य देशों से अलग रखती है और वह अमृत भाव ही है जो सब देशों, सब धर्मों, सब जातियों और प्राणि मात्र के साथ समरसता स्थापित करने में साधक बनता है।
( 4 मई 1995 के अंक में ‘आनंद भाव को हमने सिद्ध कर रखा है’ आलेख से)
जीवन दृष्टि
हमारे यहां लोग समष्टि भाव व वैश्विक दृष्टि से सोचते हैं। ऐसी दृष्टि जिस देश में हो, मनुष्यों का स्वभाव इस पावन दृष्टि के अनुकूल हो उस देश का विनाश या विलोप होना कभी संभव नहीं। यह तो हमारे देश की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परम्परा है। लेकिन दूसरी बात जीवन दृष्टि की है। हमारे यहां सम्पन्नता और विपन्नता, सुख और दु:ख के अपने-अपने मापदण्ड हैं। कभी गांव चले जाइए, उत्सव हो तो देखिए, रात-रात भर लोग तानपुरा, ढोलक, मजीरा लिए नाचते रहेंगे। मैंने दर्जनों देशों की यात्राएं की हैं। गरीब से गरीब बस्तियों में गया हूं लेकिन प्रसन्न होकर दूसरों के सुख में इस कदर भाव-विभोर होकर नाचते कहीं नहीं देखा।
(आत्मकथ्य ‘धाराप्रवाह’ से)
भा रत के इतिहास के कतिपय अतीव महत्वपूर्ण पक्षों को विदेशियों ने विकृत कर प्रस्तुत किया है, यह तो समझ में आता है। लेकिन देश के अपने विद्वान भी वैसा ही व्यवहार करें तो यह दास्यवृत्ति का परिणाम ही माना जाएगा। यद्यपि इतिहासकार को अतीत के साथ ईमानदारी बरतनी ही चाहिए, परन्तु राजनीति या प्रभुसत्ता के प्रभाव से बहुत कम इतिहासकार अछूते रह पाते हैं। भारत के इतिहास के साथ अन्याय करने वाले और जानबूझकर अन्याय करने वाले प्राय: ब्रिटिश इतिहासकार रहे हैं। ब्रिटेन की प्रभुता में रहने के बाद हमारे भी इतिहासकारों ने वही किया और तथाकथित अंग्रेजदां बुद्धिजीवी आज भी वैसा ही कर रहे हैं। ‘इतिहास’ शब्द ‘इति’‘ह’और ‘आस’ इन तीन शब्दों से मिलकर बना है। इसका अर्थ है- यह ही था। इतिहासकारों को व्यवहार इस तरह करना होगा कि तथ्यों का ईमानदारी से संकलन करें। (कुलिश जी के आलेखों पर आधारित पुस्तक ‘दृष्टिकोण’ में
‘हम इस देश के वासी हैं या नहीं’ आलेख के अंश)
Published on:
14 Aug 2025 08:33 pm