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शाखा से संस्कार तक: राष्ट्रभक्ति और अनुशासन का संकल्प

भजनलाल शर्मा, मुख्यमंत्री, राजस्थान

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डॉ. हेडगेवार बलिराम हेडगेवार और उनके पांच साथियों के मन में यह विचार अंकुरित हुआ कि भारत की दासता का स्थाई समाधान केवल राजनीतिक स्वतंत्रता से संभव नहीं है, बल्कि इसके लिए समाज का चरित्र निर्माण और संगठन अनिवार्य है। विजयादशमी के दिन 1925 में नागपुर के एक छोटे से कमरे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना हुई। यही बीज आज सौ वर्षों बाद एक वटवृक्ष का रूप ले चुका है।बचपन से ही डॉ. हेडगेवार मातृभूमि के प्रति अगाध प्रेम से ओतप्रोत थे। कोलकाता में मेडिकल की पढ़ाई के दौरान उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के विविध स्वरूपों अर्थात सशस्त्र क्रांति से लेकर सत्याग्रह तक को निकट से देखा और सम्मान दिया। वे समझ चुके थे कि विदेशी दासता का मूल कारण भारतीय समाज की आंतरिक कमजोरी है। डॉ. हेडगेवार का मानना था कि राष्ट्रीय चरित्र में गिरावट, अनुशासनहीनता, संकीर्ण पहचान और अपनी संस्कृति के प्रति हीनभावना ही आक्रांताओं और आक्रमणकारियों के भारत में जमने के कारण बने। इसलिए डॉ. हेडगेवार ने तय किया कि एक ऐसी पद्धति विकसित की जाए, जो लोगों को जीवनपर्यन्त राष्ट्रहित के लिए प्रशिक्षित कर सके। यही पद्धति शाखा प्रणाली के रूप में सामने आई, जहां व्यायाम, अनुशासन, गीत, प्रार्थना और राष्ट्रीय चेतना के संस्कार देकर व्यक्ति निर्माण से राष्ट्रनिर्माण का संदेश दिया जाता है।


द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ‘गुरुजी’ ने संघ को वैचारिक गहराई दी। उन्होंने स्पष्ट किया कि भारत केवल एक भौगोलिक इकाई नहीं, बल्कि एक प्राचीन सांस्कृतिक राष्ट्र है, जिसका उद्देश्य मानवता को सार्वभौमिक सद्भाव की राह दिखाना है।माधव दत्तात्रेय देवरस, प्रो. राजेंद्र सिंह (रज्जू भैया), के. एस. सुदर्शन और वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने समय की चुनौतियों के अनुरूप संघ को नई दिशा दी। हाल के वर्षों में संघ ने सामाजिक समरसता, महिलाओं की भूमिका और परिवार व्यवस्था की मजबूती पर विशेष बल दिया है। वर्ष 1926 से नियमित रूप से लगने वाली शाखा आज संघ की सबसे बड़ी पहचान है। नागपुर से शुरू हुई यह परंपरा आज गांव-गांव और नगर-नगर में फैल चुकी है। आज देशभर में लगने वाली करीब 85 हजार दैनिक शाखाओं, साप्ताहिक मंडलियों और मासिक शाखाओं में 50 लाख से अधिक स्वयंसेवक नियमित रूप से भाग लेते हैं। भारत में ही नहीं, अमेरिका, ब्रिटेन, मॉरीशस समेत 40 से अधिक देशों में ‘हिंदू स्वयंसेवक संघ’ के रूप में शाखाएं चल रही हैं।


शाखा केवल व्यायाम या खेल का केंद्र नहीं, बल्कि यह अनुशासन, निस्वार्थ सेवा और राष्ट्रीय एकात्मता का विद्यालय है। लाखों स्वयंसेवकों को तैयार करने वाली यही शाखाएं संघ की ताकत हैं। प्रभात, सायं और रात्रि शाखाओं के अलग-अलग स्वरूप हैं। मुझे बचपन में ही संघ की शाखा में जाने का सुअवसर प्राप्त हुआ। मेरे रिश्ते में दादाजी भरतपुर जिले में आरएसएस के विभिन्न दायित्वों का निर्वहन करते थे और उन्हीं की प्रेरणा से मुझे शाखा में जाकर सेवा और संस्कार के संकल्प के साथ राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा मिली। आपातकाल के दौरान संघ को कुचलने का पूरा प्रयास किया गया। परंतु हर बार संघ सशक्त होकर निकला।

आपदा राहत हो या पुनर्वास, संघ ने हर बार अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई। प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में सहायता के लिए स्वयंसेवक सबसे पहले पहुंचते हैं। श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन ने संघ को एक विराट सांस्कृतिक शक्ति के रूप में स्थापित किया। शिक्षा के क्षेत्र में विद्या भारती, वंचित समाज के लिए सेवा भारती, ग्रामीण विकास आदि में संघ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने शताब्दी वर्ष में संघ ने ‘पंच परिवर्तन’ का आह्वान किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संघ के शताब्दी समारोह में विशेष डाक टिकट और स्मृति सिक्के जारी किए। संघ सांस्कृतिक जागरण का आंदोलन है।

आज विश्व जलवायु परिवर्तन, हिंसक संघर्ष और वैचारिक विभाजन से जूझ रहा है। ऐसे समय में भारत की आध्यात्मिक परंपरा और वेदोक्त ज्ञान ही विश्व को नई दिशा दे सकते हैं। यह तभी संभव है जब हर भारतीय अपनी जिम्मेदारी समझे और राष्ट्रीय आदर्श के निर्माण में सहभागी बने।
संघ शताब्दी यात्रा संदेश देती है कि सच्चा राष्ट्रनिर्माण, राष्ट्रीय भावना, व्यक्ति निर्माण और समाज संगठन से होता है। शताब्दी वर्ष में संघ का संकल्प है कि भारत न केवल आत्मनिर्भर बने, बल्कि विश्व को भी शांति, सद्भाव और सहयोग की राह दिखाए।