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क्या इन व्यवस्थागत हत्या के लिए कोई सजा है?

गजेंद्र सिंह, लोक नीति विश्लेषक

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हमारे देश में हर साल सड़क सुरक्षा सप्ताह मनाया जाता है। हर साल इमारतों, अस्पतालों और दफ्तरों का ऑडिट किया जाता है, फायर सेफ्टी ड्रिल और आपदा प्रबंधन की बैठकों होती हैं। फिर भी, हर साल सैकड़ों लोगों की मौत ऐसे हादसों में होती है जिन्हें रोका जा सकता था। हाल में हुई घटनाओं ने इस प्रश्न को और तीखा बना दिया है। जैसलमेर में एक स्लीपर बस में आग लगी, यात्रियों की मौत हुई- बाद में पता चला कि बस न सुरक्षा मानकों पर खरी थी, न उसकी डिजाइन स्वीकृत थी। जयपुर के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल में आग लगी, लोग जलकर मरे और कुछ दिनों बाद उसी विभाग के इंचार्ज डॉक्टर रिश्वत लेते पकड़े गए।

जयपुर में ही अजमेर रोड पर कुछ ही दिनों में दो भीषण हादसे हुए- पहले में एलपीजी ट्रक और बस की टक्कर से यात्री जलते हुए भागे और जल्द ही उसी जगह फिर एक दुर्घटना हुई। बाड़मेर में टोल वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर गड्ढे में फंसी कार वाहन से टकराकर जल गई, चार लोग जिंदा जल गए। क्या ये सब केवल दुर्घटनाएं हैं- या फिर हमारी व्यवस्था द्वारा की गई हत्याएं? अस्पताल के वार्ड में आग लगी और वार्ड इंचार्ज ने कई बार सुरक्षा खतरे की चेतावनी दी थी, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं होती- जब अधिकारी लिखित रूप से असुरक्षित निर्माण के बारे में सूचित करते हैं, फिर भी काम जारी रहता है, जब सड़क पर टोल वसूला जाता है, लेकिन गड्ढों से वाहन पलटते हैं और लोग मरते हैं और मरम्मत की रिपोर्ट सिर्फ कागजों तक सीमित रहती हैं। जब सफाई कर्मचारी सीवर लाइन में जहरीली गैस से मरते हैं, स्कूल भवन की छत गिरती है या पुल-फ्लाईओवर ढहते हैं- तब स्पष्ट है कि समस्या व्यवस्था में है। नीति निर्माण में केंद्र में बैठे जनप्रतिनिधि और वरिष्ठ अधिकारी अक्सर अपने हितैषियों, अपनी जाति या 'पार्टी कार्यकर्ताओं' को बचाने के लिए पूरे सिस्टम के साथ खेल जाते हैं, नियमों को तोड़-मरोड़ कर पुनः परिभाषित कर दिया जाता है, कुछ मामूली पेनल्टी या अस्थायी ट्रांसफर कर मामले को दबा दिया जाता है। इसके बाद नया बजट, नई योजना और नया निर्माण- और उसी ढांचे में अगली त्रासदी की तैयारी शुरू हो जाती है।

जब शासन व्यवस्था में बैठा व्यक्ति जानता है कि उसकी अनदेखी किसी की जान ले सकती है और फिर भी कुछ नहीं करता- तो वह किसी हथियार से नहीं, बल्कि अपनी उदासीनता और मौन से हत्या करता है। यही होती है असली ‘व्यवस्थागत हत्या’- जो हर दिन हमारे चारों ओर घट रही है, लेकिन किसी एफआईआर में दर्ज नहीं होती। क्या भारत में कानून में ‘व्यवस्थागत हत्या’ नाम से कोई धारा है? जब किसी व्यक्ति, संस्था या विभाग की लापरवाही से किसी की जान जाती है, तो यह भारतीय न्याय संहिता की धारा 304 के अंतर्गत अपराध है- ‘जो कोई किसी व्यक्ति की मृत्यु का कारण बनता है, किसी लापरवाही या असावधानी से, बिना इरादतन हत्या किए, उसे दो वर्ष तक की सजा या जुर्माना या दोनों से दंडित किया जा सकता है।’ इसके अलावा धारा 336, 337 और 338 में भी दूसरों के जीवन को खतरे में डालने, चोट या गंभीर नुकसान पहुंचाने पर दंड का प्रावधान है। लोक सेवा की जिम्मेदारी (भारतीय न्याय संहिता 198, 217) के तहत यदि कोई सरकारी अधिकारी अपने कर्तव्य में जानबूझकर लापरवाही बरतता है और परिणामस्वरूप जनता को नुकसान होता है, तो वह भी अपराधी श्रेणी में आता है। फिर भी, हमारे देश में इन धाराओं का इस्तेमाल बहुत कम होता है। कारण यह है कि व्यवस्था अपने ही दोषों को ‘सिस्टम फेल्योर’ का नाम दे देती है।

वास्तविक आंकड़े और हालिया घटनाएं इस उदासीनता की गवाही देती हैं। राष्ट्रीय सड़क सुरक्षा परिषद के 2024 के आंकड़ों के अनुसार, भारत में हर साल सड़क हादसों में लगभग 1.5 लाख लोग अपनी जान गंवाते हैं, जिनमें से 40% से अधिक ऐसे हैं, जिन्हें उचित सुरक्षा और त्वरित हस्तक्षेप से बचाया जा सकता था। अकेले राजस्थान में पिछले तीन वर्षों में औसतन 7,500 सड़क हादसे दर्ज हुए, जिनमें 2,100 से अधिक लोग मारे गए। अस्पतालों में सुरक्षा उल्लंघन भी चिंता का विषय है- दिल्ली और जयपुर के सरकारी अस्पतालों में 2022-24 में कम से कम पांच गंभीर आग हादसे हुए, जिनमें लगभग 200 मरीजों की मृत्यु हुई और जांच में स्पष्ट हुआ कि आग लगने से पूर्व चेतावनियां कई बार प्रशासन को दी गई थीं। औद्योगिक और निर्माण क्षेत्र में भी आंकड़े भयावह हैं: 2023 में श्रम मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, निर्माण स्थलों पर 3,500 से अधिक हादसे हुए, जिनमें 1,200 लोग घायल और 800 से अधिक लोगों की मौत हुई। यह आंकड़ा केवल आधिकारिक रूप से दर्ज हुए मामलों का है, असंख्य छोटी घटनाएं और ग्रामीण क्षेत्रों के हादसे रिकॉर्ड में नहीं आते। इन डेटा और घटनाओं से स्पष्ट है कि यह ‘अनहोनी’ नहीं, बल्कि सिस्टम की संरचनात्मक विफलता है- और यही व्यवस्थागत हत्या की गंभीर वास्तविकता है।

क्या बदलाव जरूरी हैं? जरूरी है कि भारत में व्यवस्थागत हत्या को एक कानूनी अवधारणा के रूप में स्वीकार किया जाए। ‘कंपनी एक्ट’ में कॉर्पोरेट लापरवाही या ‘एनवॉयर्नमेंट एक्ट’ में पर्यावरणीय नुकसान के लिए जैसे जिम्मेदारी तय की जाती है, वैसे ही प्रशासनिक लापरवाही से होने वाली मृत्यु पर भी संस्थागत जिम्मेदारी तय हो। चेतावनियों के बाद भी कार्रवाई नहीं हो तो व्यक्तिगत स्तर पर दंड होना चाहिए- चाहे वह सेवा निलंबन हो, आर्थिक दंड हो या आपराधिक अभियोजन। यह समय है कि हम हादसों को ‘प्राकृतिक आपदा’ भर नहीं टालें। हर स्तर की ब्लॉक से लेकर राज्य स्तर तक जिम्मेदारी की स्पष्ट श्रृंखला तय हो। वार्षिक मूल्यांकन में अधिकारी की लापरवाही, जोखिम प्रबंधन और सामाजिक प्रभाव का वास्तविक मूल्यांकन जोड़ना जरूरी है।