
क्रिस टेरेसा वर्गीस, रिसर्च एनालिस्ट,काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायर्नमेंट एंड वॉटर
इलेक्ट्रिक ऑटो भारत की इलेक्ट्रिक मोबिलिटी की कहानी के मुख्य आधार बन गए हैं। पिछले एक साल में नए ई-ऑटो का पंजीकरण 32 प्रतिशत तक बढ़ा है यानी बिक्री होने वाले प्रत्येक तीन ऑटो में लगभग एक ऑटो इलेक्ट्रिक है। यह परिवर्तन किफायती आवागमन, ड्राइवरों के लिए अच्छी आमदनी और स्वच्छ हवा को सुनिश्चित कर रहा है लेकिन इस बदलाव को सही मायने में परिवर्तनकारी बनाने के लिए भारतीय शहरों की महिलाओं को इसके केंद्र में रखना होगा। आंकड़े बताते हैं कि लैंगिक समावेशी ई-ऑटो परिवर्तन ड्राइवर और यात्री दोनों के लिए सामाजिक-आर्थिक लाभ लाते हैं।
महिला ऑटो चालकों के आने से लास्ट-माइल कनेक्टिविटी मजबूत हो सकती है, यात्री सुरक्षा में सुधार आ सकता है और प्रदूषण मुक्त आवागमन का लाभ संपूर्ण समुदायों तक पहुंच सकता है। काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायर्नमेंट एंड वाटर (सीईईडब्ल्यू) के एक अध्ययन के अनुसार, अमृतसर में महिला ऑटो चालकों ने घरेलू या सिलाई जैसे कार्य करने वाली महिलाओं की तुलना में हर महीने 5,000 रुपए अधिक कमाई की। उन्हें अपनी सुविधा से काम करने की छूट भी मिलती है, जिससे वे अपनी घरेलू और पारिवारिक जिम्मेदारियों को भी निभा पाती हैं। महिला ड्राइवर वाले वाहनों में महिलाएं, बच्चे और वरिष्ठ नागरिकों की सुरक्षा की धारणा भी अधिक होती है। इन्हीं लाभों को देखते हुए दिल्ली, ठाणे, बेंगलुरु और कोच्चि जैसे कम से कम 10 अन्य शहरों ने ई-ऑटो में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए 2017-2023 के बीच प्रयास किए। सीईईडब्ल्यू का आकलन बताता है कि लैंगिक समावेशन लक्ष्यों को पूरा करने में रफ्तार धीमी रही है। इसका स्पष्ट सबक है कि लैंगिक समावेशन को बाद में नहीं, बल्कि शुरुआत से ही नीति और कार्यान्वयन में शामिल करना चाहिए।
इसमें कुछ कदम महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं- सबसे पहले, केंद्रीय मंत्रालयों और राज्य सरकारों को वर्तमान ईवी नीतियों में लैंगिक असमानताओं का पता लगाना चाहिए और ड्राइवर के रूप में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए स्पष्ट निर्देश देने चाहिए। 2024 तक सिर्फ दिल्ली और पश्चिम बंगाल ने अपनी ईवी नीतियों में महिलाओं को ड्राइवर के रूप में शामिल करने के स्पष्ट प्रावधान किए हैं। नई ईवी नीतियों में एक सुनिश्चित फंड, स्पष्ट लक्ष्य और सब्सिडी के जरिए लैंगिक समावेशन को शुरुआत से जोड़ा जाना चाहिए, ताकि महिलाएं ट्रांसपोर्ट वर्कफोर्स में आ सके।
दूसरा, शहरों को तिपहिया वाहनों के ड्राइवर के रूप में महिलाओं की भागीदारी को रोकने वाली सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाओं को दूर करना चाहिए। इसमें महिलाओं को किराए पर वाहन देने की हिचक, सीमित ड्राइविंग कौशल व पारिवारिक चिंताएं भूमिका निभाती हैं। स्वयं सहायता समूह के माध्यम से मिलने वाला प्रोत्साहन इच्छुक ड्राइवरों में सामूहिक पहचान और जवाबदेही को मजबूत बना सकता है।
तीसरा, कौशल अंतर को दूर करने के लिए शहरों को महिलाओं के समय, आने-जाने की सुविधा और आर्थिक समस्या को ध्यान में रखकर प्रशिक्षण तंत्र विकसित करना चाहिए। स्किल काउंसिल, ड्राइविंग स्कूलों, ट्रैफिक पुलिस और स्थानीय गैर सरकारी संगठनों के बीच साझेदारी महिलाओं को प्रशिक्षण से लेकर लाइसेंस पाने तक सहायक बन सकती है।चौथा, महिलाओं की दीर्घकालिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए एक सहायक और सुरक्षित वातावरण जरूरी है। कई महिलाएं पुरुष ड्राइवरों के विरोध और बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण आराम से वाहन चलाने को लेकर चिंताएं जताती हैं। महिलाओं के लिए विशेष ई-ऑटो स्टैंड, जहां शौचालय, आराम करने की जगह, सीसीटीवी कैमरे, स्ट्रीट लाइट और चार्जिंग की सुविधाएं हों, उनके काम को सुरक्षित और अधिक सुविधाजनक बनाने में मदद कर सकते हैं। ऐसे साझा ऑटो स्टैंड महिलाओं के बीच सामुदायिक भावना को भी बढ़ावा देते हैं, जिससे अन्य महिलाओं को ड्राइविंग में आने की प्रेरणा मिलती है। जन-जागरूकता और लैंगिक संवेदनशीलता के प्रयास परिवारिक सदस्यों, यातायात पुलिस और पुरुष ड्राइवरों की सोच में बदलाव महिलाओं की भागीदारी मजबूत बना सकते हैं।
महिलाओं को चिह्नित करना, प्रशिक्षण देना और उन्हें लंबे समय तक बनाए रखना, एक दीर्घकालिक दृष्टिकोण की मांग करता है। भारत में आवागमन संबंधित परिवर्तन उतने ही समावेशी होंगे, जितनी कि इन्हें बनाने वाली संस्थाएं, बुनियादी ढांचा और सामाजिक नियम। अपने आवागमन के भविष्य पर विचार कर रहे शहरों को यह सुनिश्चित करना होगा कि महिलाएं इस परिवर्तन में सिर्फ यात्री न बनें, बल्कि संचालक भी बनें।
Updated on:
03 Dec 2025 05:36 pm
Published on:
03 Dec 2025 05:35 pm
बड़ी खबरें
View Allओपिनियन
ट्रेंडिंग
