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तकनीक व विचारधारा का गठजोड़ जिहादी नेटवर्क का नया चेहरा

विनय कौड़ा, अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार

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लाल किले के समीप हुआ हालिया विस्फोट एक चेतावनी है कि आतंकी केवल भौतिक सीमाओं को भेदकर नहीं आ रहे, बल्कि हमारे समाज के भीतर, हमारे ही पढ़े-लिखे पेशेवर वर्ग के बीच ठिकाना खोजने लगा हैं। आंतरिक सुरक्षा की इस नई चुनौती का स्वरूप कहीं अधिक गहरा, कहीं अधिक सूक्ष्म और भयावह हो चुका है, जो बंदूकों की नोक से ज्यादा विचारों, तकनीकी और शिक्षा की दुनिया में आकार ले रही है। यह विस्फोट बरसों से पनप रहे उन छिपे नेटवर्कों की परिणति है, जो जिहादी विचारधारा के बीज बोते आ रहे हैं। इन आतंकियों ने बंदूकों से ज्यादा, इंटरनेट और तकनीकी का इस्तेमाल किया है। ये आतंकी, धार्मिक पहचान और तकनीकी ज्ञान के घालमेल से ऐसी विचारधारा गढ़ रहे हैं, जो देश की आंतरिक सुरक्षा को गहराई से कमजोर कर रही है।

इस नई जिहादी प्रवृत्ति का सबसे खतरनाक आयाम यह है कि शिक्षित पेशेवर युवा भी चरमपंथ के जाल में फंसते जा रहे हैं। इस घटना में कुछ चिकित्सकों- जिन्हें समाज के अत्यन्त प्रतिष्ठित वर्गों में माना जाता है, की लिप्तता भयावह विडंबना का प्रतीक है। इन चिकित्सकों के हाथ जीवन बचाने के लिए बने थे, लेकिन वे धीरे-धीरे जिहादी कट्टरपंथ के ऐसे दलदल में फंस गए जहां सेवा का धर्म विनाश के कर्म में बदल गया। उन्हें डिजिटल निशानों - मोबाइल संवाद, सीसीटीवी फुटेज और ऑनलाइन गतिविधियों से स्पष्ट है कि वे एक संगठित आतंकी नेटवर्क से संचालित थे। विज्ञान और चिकित्सा के विद्यार्थी रह चुके ये युवा षड्यंत्र और हिंसा की भाषा में पारंगत हो चुके थे। सोशल मीडिया अभियानों ने इन चिकित्सकों के भीतर ‘जिहादी गौरव’ का भ्रम पैदा किया, जिससे पाकिस्तान स्थित जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठन उन्हें वैचारिक रूप से प्रभावित कर सके। गौरतलब है कि ‘ऑपरेशन सिंधूर’ के दौरान अपने मुख्यालय बहावलपुर पर भारतीय हमले के प्रतिशोध स्वरूप जैश-ए-मोहम्मद भारत में आतंकी विस्फोट की योजनाएं बना रहा था। दरअसल पाकिस्तान अब केवल आतंकियों को शरण नहीं देता, बल्कि डिजिटल प्रचार, ऑनलाइन भर्ती और कृत्रिम-बुद्धिमत्ता आधारित प्रोपेगेंडा के माध्यम से भारत के खिलाफ वैचारिक युद्ध चला रहा है। उसकी खुफिया एजेंसियां ऐसे ऑनलाइन मंच बना रही हैं, जो शिक्षित युवाओं के भीतर पहचान और न्याय के प्रश्नों को तोड़-मरोड़ कर उन्हें ‘धर्मरक्षक’ बनने का भ्रम फैला रहे हैं। आर्थिक संकट और राजनीतिक अस्थिरता ने पाकिस्तान को इस स्थिति में पहुंचा दिया है कि जिहादी आतंक उसी की आत्मरक्षा की रणनीति बन चुका है।

इस पूरे खेल में चीन जैसे देशों की भूमिका भी अनदेखी नहीं की जा सकती। चीन न केवल पाकिस्तान को आर्थिक और कूटनीतिक संबल प्रदान करता है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसे अपराधों की आड़ भी बन जाता है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय की प्रतिक्रियाएं भी भारत के इस संघर्ष को जटिल बना रही हैं। अधिकांश पश्चिमी देश आतंकवाद की निंदा अवश्य करते हैं, लेकिन उस पर निर्णायक दबाव से भी बचते हैं। लाल किले की घटना ने यह भी स्पष्ट किया कि आज आतंकवादियों के पास केवल हथियार नहीं, वैचारिक हथियार भी हैं। विश्वविद्यालयों के कुछ विमर्श, सोशल मीडिया के प्लेटफार्म और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में चल रहे भारत-विरोधी प्रचार इस रणनीति के अंग हैं। इन मंचों पर कुछ बुद्धिजीवी अनजाने में इस विमर्श को वैधता दे देते हैं, जिससे जिहादी कट्टरपंथ को बौद्धिक स्वीकृति मिलती है। वैसे तो भारत ने आतंकी नवीन प्रवृत्तियों को पहचानते हुए ठोस कदम उठाए हैं। सीमा-पार अभियानों, खुफिया नेटवर्कों के समन्वय, साइबर निगरानी की सुदृढ़ता और रक्षा प्रौद्योगिकी में आत्मनिर्भरता की दिशा में प्रगति ने हमारी सामरिक क्षमता को नई ऊंचाई दी है। परंतु यह भी उतना ही सत्य है कि सुरक्षा कोई स्थिर उपलब्धि नहीं, सतत सजगता की एक प्रक्रिया है।

भारत के समक्ष सबसे बड़ी आवश्यकता समाज के भीतर ‘वैचारिक प्रतिरोध’ की है। विश्वविद्यालयों, अस्पतालों और मीडिया संस्थानों को ऐसे मंच बनना होगा, जहां सेवा और करुणा की मूल भावना पुनः प्रतिष्ठित हो, जहां कट्टरपंथी भाष्य को चुनौती दी जाए। चरमपंथी आतंकवाद के खिलाफ यह लड़ाई केवल हमारी सुरक्षा एजेंसियों की नहीं, पूरे राष्ट्र का सामूहिक संघर्ष है। हमें यह समझना होगा कि आधुनिक आतंकवाद सबसे बड़ा खतरा यह नहीं कि वह बाहर से आता है, बल्कि यह है कि वह हमारे भीतर घर बना लेता है।