
Balasaheb Thakre the king of Maharashtra untold story(फोटो: सोशल मीडिया)
Balasaheb Thakre: बालासाहेब ठाकरे को याद करना सिर्फ मुंबई की राजनीति या मराठी अस्मिता को याद करना नहीं, बल्की मध्य प्रदेश ने ठाकरे के ऐसे व्यक्तित्व के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसने न केवल उन्हें एक सफल राजनेता बनाया, बल्कि लाखों लोगों की सोच बदल कर रख दी। कभी इंदौर की गलियों में घूमता एक लड़का, कभी जबलपुर के एक कमरे में तैयार होता एक युवा कलाकार, कभी ग्वालियर में बैठकर भविष्य की घोषणा करता एक आत्मविश्वासी व्यक्तित्व, ऐसी शख्सियत जो बाद में महाराष्ट्र की राजनीति का 'अघोषित राजा' बनकर उभरी। राजशाही परिवार से विरासत में मिलने वाले जिद्दी स्वभाव के दम पर उनके ऐतिहासिक कथन को लोग आज भी याद करते हैं, 'एक दिन मैं महाराष्ट्र का राजा बनूंगा।'
कहा जाता है कि बालासाहेब ठाकरे (Balasaheb Thakre) ने महाराष्ट्र की राजनीति को अपनी आवाज, अपने तेवर और संगठन से एक नई सूरत दी। उनकी पुण्यतिथि पर अक्सर लोग उन्हें शिवसेना के संघर्षों और मुंबई की सड़कों की हलचल के साथ याद करते हैं। लेकिन किशोर अवस्था में ठाकरे की जिद, एक राजनेता के तेवर और आज भी उनके इर्द-गिर्द घूमने वाली महाराष्ट्र की राजनीति को एक नई पहचान देने में मध्य प्रदेश की भूमिका कैसे अहम रही? कैसे मध्य प्रदेश में रहकर उनके व्यक्तित्व में व्यंग्य, कला और एक प्रखर राजनेता का निर्माण हुआ… मध्य प्रदेश से बहुत करीबी और गहरा नाता…ये वही पहलू है, जो आज भी लोगों को चौंका देता है… जिसे आप भी जरूर जानना चाहेंगे… अगर हां तो जरूर पढ़ें- patrika.com की ये खास पेशकश…
कभी इंदौर की गलियों में घूमने वाला एक किशोर, जबलपुर की हवा में अपने शुरुआती विचारों के बीज बोने वाला एक युवा और ग्वालियर में रिश्तेदारी का गहरा भाव रखने वाला एक पारिवारिक नाम है 'बालासाहेब ठाकरे' मध्य प्रदेश का यह जुड़ाव उतना ही दिलचस्प है जितना, उनका वो ऐतिहासिक कथन कि, 'एक दिन मैं महाराष्ट्र का राजा बनूंगा।' विडंबना बस यही कि जब उस इतिहास को दोहराते हैं, तो पाते हैं जब उन्होंने यह कहा था तब, उनके आसपास रहने वाले, उन्हें जानने वाले किसी भी शख्स ने उनकी इस बात को गंभीरता से नहीं लिया था। लेकिन यही लाइन बाद में एक राजनीतिक भविष्यवाणी साबित हुई। उनके व्यक्तित्व, उनके आत्मविश्वास और उनकी राजनीतिक प्रवृत्ति की सटीक झलक थी वो भविष्यवाणी, जो उन्हें मध्य प्रदेश के तीन शहरों, इंदौर, जबलपुर और ग्वालियर से मिली।
बालासाहेब बचपन में पिता के साथ कुछ समय एमपी के इंदौर में रहे थे। यह वह दौर था जब इंदौर में प्रिंट मीडिया, कला और राजनीतिक कटाक्ष तीनों अपनी जगह बना चुके थे। इंदौर का यह माहौल, खासकर प्रेस और उस समय अखबारों में प्रकाशित होने वाले व्यंग्य-संपादकीय की संस्कृति ने बालासाहेब के भीतर उस 'कटाक्ष की भाषा' को आकार दिया, जो बाद में उनकी पूरी राजनीति का आधार बनी। इंदौर के पुराने पत्रकार आज भी याद करते हैं कि ठाकरे का व्यक्तित्व बेहद तेज दिमाग और तीखी कलम वाला था। कई लेखों में जिक्र मिलता है कि 'उन्हें अक्सर ये कहते सुना जाता था कि 'व्यंग्य मेरा हथियार है और इसे मैंने इंदौर में ही धार दी है।' यह तथ्य मध्य प्रदेश के लिए बेहद खास इसलिए भी है क्योंकि कहीं न कहीं शिवसेना की विचारधारा का शुरुआती बीज, शैली और ताने-बाने की कला उनमें इसी शहर से विकसित हुई थी।
बहुत कम लोगों को पता है कि बाल ठाकरे परिवार का नाता जबलपुर के कुछ रिश्तेदारों से था। यही वजह थी कि किशोरावस्था के दौरान बालासाहेब का इस शहर में आना-जाना लगा रहता था। उनके करीबी बताते हैं कि जबलपुर आने के बाद बालासाहेब के व्यक्तित्व में दो नई रुचियों का रुझान गहरा होता नजर आया। वो थी कला और राजनीतिक-सामाजिक सोच की शुरुआती समझ।
दरअसल जबलपुर उस समय उभरते कलाकारों और कार्टूनिस्टों का शहर माना जाता था। यह कला-परम्परा बालासाहेब के भीतर ऐसे समा गई कि आगे चलकर 'मर्मभूमि', 'साधु' और बाद में 'उठा और लगा दे थप्पड़' जैसी उनकी भाषा के ग्राफिक-कार्टूनी अंदाज के रूप में साकार होती नजर आई। इस कला ने उन्हें मशहूर कर दिया।
इनकी राजनीतिक और सामाजिक विचारधारा का रूप था इनका अपना अखबार था 'सामना'। पहली बार 23 जनवरी 1988 को प्रकाशित हुआ ये समाचार पत्र मराठी भाषा का था, जिसे बालठाकरे ने अपनी ही पार्टी 'शिवसेना' के नाम पर महाराष्ट्र में लॉन्च किया था। इस अखबार ने भी उन्हें एक विशिष्ट पहचान दी। जिसे आज भी लोग ये कहते हुए याद करते हैं कि, ठाकरे की राजनीति जितनी तेज थी, उससे भी कहीं ज्यादा पैनी उनकी कलम थी।
ग्वालियर से ठाकरे परिवार का पारिवारिक संबंध तो था, लेकिन यहां उनका रुकना अक्सर सामाजिक दौरों और पारिवारिक मुलाकातों के कारण होता था। यहीं एक बार उन्होंने अपने बेहद करीबी लोगों के बीच, हंसी-मजाक में यह ऐतिहासिक लाइन कही थी, 'एक दिन मैं महाराष्ट्र का राजा बनूंगा।' कहा जाता है कि उनकी ये बात सुनकर कमरे में मौजूद सभी लोग हंस पड़े और किसी ने भी उनके इस वाक्य को गंभीरता से नहीं लिया था। लेकिन बालासाहेब मुस्कुराते रहे। उनकी इस मुस्कान में वही आत्मविश्वास झलक रहा था जो, बाद में शिवसेना का राजनीतिक केंद्र बन गया।
उनका ये ऐतिहासिक कथन की महाराष्ट्र का राजा बनूंगा ये इतना महत्वपूर्ण इसलिए हो जाता है क्योंकि इतिहास में ऐसे बहुत कम राजनेता या लोग मिलते हैं, जिन्हें किस्मत या कुंडली के भरोसे नहीं, बल्कि अपने व्यक्तिगत गुणों को परखते हुए आत्मविश्वास से खुद का भविष्य घोषित किया और फिर उस भविष्यवाणी को सच होते देखा, जिंदगी का एक हिस्सा वैसे ही जिया, जैसा सोचा और कहा। शायद उन्हें अंदाजा था कि वो जो कह रहे हैं उनकी जिद है कि वो बनकर दिखाएंगे।
ग्वालियर के कुछ बुजुर्गों से बात की तो, इनमें चंद्रलाल सिंह तोमर ने याद करते हुए कहा कि उनकी आवाज, व्यक्तित्व और आंखों की चमक ऐसी थि कि अजीब तरह से लोगों को खींच लेती थी, जैसे कोई नेता नहीं, बल्कि कोई जन्मजात नायक सामने खड़ा हो।
बालासाहेब ठाकरे के लिए कहा जाता है कि उन्होंने न तो चुनाव लड़ा, न कभी किसी पद की लालसा दिखाई। फिर भी वह 'महाराष्ट्र के राजा' जैसे प्रभावशाली नेता बन गए। यह राजनीतिक इतिहास में बिल्कुल अनोखी घटना है। उनकी यह लाइन एक ब्रांडिंग थी, 'स्वराज, स्वाभिमान और सत्ता पर-जनता का पूरा नियंत्रण।' और आज भी महाराष्ट्र की राजनीति अगर उनके नाम पर घूमती है, तो उसकी जड़ें भी उनके इस बयान में छिपी नजर आती हैं।
-कुल मिलाकर बालासाहेब ठाकरे की राजनीतिक सोच का सार थी ये पंक्ति। क्योंकि उनका मानना था कि सत्ता की असली मालिक जनता हो, न कि कोई दूर बैठी सत्ता या नौकरशाही या नेता। यह विचार ही शिवसेना के शुरुआती आंदोलन से जुड़ा था, जहां वे चाहते थे कि स्थानीय लोग ही स्थानीय फैसले लें। इसे वे स्वराज कहते थे।
ठाकरे हमेशा मराठी मानुष के स्वाभिमान की बात करते थे। लेकिन उनकी अवधारणा सिर्फ मराठी अस्मिता पर आकर नहीं रुकी, यह मूल रूप से गौरव, पहचान और आत्मसम्मान की राजनीति थी। उन्होंने लोगों को सिखाया कि राजनीति में भी आत्मसम्मान आवश्यक है। इसलिए उन्होंने स्वाभिमान की बात की।
उनकी पूरी राजनीति इस विचार पर चलती थी कि सड़कों पर मौजूद जनता, स्थानीय समाज और साधारण नागरिक किसी भी सरकार से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। यही कारण था कि वे शिवसैनिकों को जन आंदोलन की ताकत माना जाता था। उनकी ये लाइन इसलिए भी महत्वपूर्ण साबित होती है कि 70-80 का दशक नौकरशाही, केंद्रीकृत सत्ता और दिल्ली-निर्भर राजनीति का था। ठाकरे ने इससे बिल्कुल उलट विचार दिया था। जिसे उन्होंने लागू करके दिखाया था। वे अक्सर कहा करते थे, सरकारें दिल्ली में बनती हैं, लेकिन जनता की आवाज गलियों में बनती है।'
बिना किसी राजशाही के, बिना किसी राजनीति के एक 'राजा' का जीवन जीने वाले बालासाहेब ठाकरे को सीएम मोहन समेत एमपीवासियों ने दी भावभीनी श्रद्धांजलि..
Updated on:
17 Nov 2025 03:42 pm
Published on:
17 Nov 2025 03:28 pm
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