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चुनौती बन रहा पर्यावरण और विकास का संतुलन

शहरी क्षेत्रों में नित्यप्रति के हो रहे अतिक्रमण और कानून विरुद्ध निर्माण इसका जीता जागता उदाहरण है।

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डॉ. विवेक अग्रवाल, पर्यावरण विषयों के जानकार- पर्यावरण और विकास में क्या महत्वपूर्ण है और उसके मध्य में संतुलन कैसे बैठे, यह विवाद अंतरराष्ट्रीय से लेकर स्थानीय स्तर तक लंबे अरसे से चल रहा है। इसी क्रम में 18 नवंबर 2025 को उच्चतम न्यायालय द्वारा पूर्व में 16 मई 2025 को पारित वनशक्ति निर्णय को वापस लेने के आदेश के बाद इस मुद्दे ने नया मोड़ लिया है। अहम प्रश्न पर्यावरण कानूनों की प्रासंगिकता पर भी है। कार्योत्तर स्वीकृतियों के माध्यम से पर्यावरण के विरुद्ध विकसित परियोजनाओं के प्रति मात्र आर्थिक आधार पर आंखें मूंदने की स्वीकृति कहीं नवीन अराजकता को जन्म न दे दे। वैसे भी, कार्यपालिका के किसी भी स्तर पर दी गई लेशमात्र की गुंजाइश का किस तरीके से दुरुपयोग किया जाता है, यह किसी से भी छिपा नहीं है।

शहरी क्षेत्रों में नित्यप्रति के हो रहे अतिक्रमण और कानून विरुद्ध निर्माण इसका जीता जागता उदाहरण है। यदि प्रक्रिया का गहराई से अध्ययन करें तो पर्यावरण संबंधी स्वीकृतियों में विलंब का मूल कारण कार्यकारी स्तंभ द्वारा अपने दायित्व से जानबूझकर अथवा सोची समझी साजिश के तहत प्रस्तुत आवेदनों को संसाधनों की कमी का हवाला देते हुए लटकाया जाना है। हालांकि स्वीकृति प्रदान करने के लिए समय सीमा का निर्धारण किया गया है किंतु उनकी पालना अपवाद स्वरूप ही होती है।

वनशक्ति निर्णय के अनुसार पर्यावरण बाबत कार्योत्तर स्वीकृति पर पाबंदी लगाते हुए, उसके अभाव में हुए निर्माण आदि को ध्वस्त किया जाना था। इससे पूरा निर्माण उद्योग ही सकते में आ गया क्योंकि बहुतायत में बड़ी परियोजनाएं कार्योत्तर स्वीकृति की प्रत्याशा में ही अंजाम दी जा रही थीं। उक्त निर्णय से उनके अस्तित्व पर ही संकट खड़ा हो गया किंतु इसके साथ ही एक कठोर संदेश भी प्रसारित हुआ कि शासन को जड़ न रहकर अपने दायित्व का वहन करना है ताकि कानूनों की अनुपालना के प्रति सचेत रहा जा सके।

वैसे भी भारत में 'भय बिन होय ना प्रीत' सिद्धांत के आधार पर ही शासन व्यवस्था संचालित की जाती रही है। उसके तात्कालिक परिणाम भी सामने आए जब कई जगह पर्यावरण नियमों के विरुद्ध विकसित परियोजनाओं को ध्वस्त करने की कार्रवाई भी की गई। उसके साथ होना यह भी चाहिए था कि निर्माण के कालखंड के दौरान शासन तंत्र में पर्यवेक्षण, निगरानी, नियोजन एवं स्वीकृतियों के लिए पदस्थापित उत्तरदायी व्यक्तियों के विरुद्ध न सिर्फ अनुशासनात्मक अपितु आर्थिक दंड की कार्रवाई भी होती।

हाल ही पारित निर्णय से उच्चतम न्यायालय ने जहां पर्यावरण स्वीकृति के अभाव में जन सुविधाओं संबंधित परियोजनाओं को कार्योत्तर स्वीकृति संबंधी प्रावधान को उचित ठहराया है वहीं पर्यावरण स्वीकृति में हो रहे विलंब के कारण हुई अनदेखी को भी इस प्रकार से न्यायोचित अधिकार प्रदान करने का निर्णय किया है। एक महत्वपूर्ण विचार यह भी उभर कर आता है कि गैर कानूनी रूप से किए गए निर्माण एवं विकास परियोजनाओं को पूरा होने के उपरांत जनसुविधा या आर्थिक आधार पर अनुमति देने की छूट क्यों दी जानी चाहिए? यह मोटे रूप से नियोजन की भी खामी है जो शहरों के मास्टरप्लान को धरातल पर लाने में अक्षम रहा है, अन्यथा आवासीय, व्यावसायिक, औद्योगिक के साथ पर्यावरण सम्मत और प्रदूषणकारी इकाइयां अपने निर्धारित स्थानों पर होती और प्रदूषण को सोखने के लिए पर्याप्त फेफड़े भी विद्यमान रहते।

उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कार्योत्तर स्वीकृति के अभाव में लगभग 20 हजार करोड़ रुपए की परियोजनाओं पर गाज गिरने को भी प्रमुख आधार मानते हुए छूट प्रदान करने के निर्देश दिए हैं। न्यायालय के निर्णय में परियोजनाओं में लग रही भारी लागत के मद्देनजर छूट देने का निर्णय किया गया है किंतु सरकारी कोष या प्रदूषण के कारण होने वाले आर्थिक नुकसान के प्रति उत्तरदायी शासन व्यवस्था को निरंकुश हो पर्यावरण से खिलवाड़ करने के लिए खुला छोड़ देना भी सही नहीं है। भविष्य में भी गैर वैधानिक निर्माण पर किसी भी प्रकार से रोक ना लगाए जाने के कारण पर्यावरण से खेल खेले जाने की आशंका बनी रहेगी। इस कथन का भी संपूर्ण सस्टेनेबिलिटी स्केल पर आंकलन करना होगा कि निर्माण को ध्वस्त करने से प्रदूषण होगा अथवा नहीं। यदि ऐसा है तो नोएडा की गगनचुंबी इमारत को क्यों ध्वस्त किया गया। उस प्रकरण में ध्वस्त करने के साथ मलबे का सदुपयोग कर विनिर्माण चक्र स्थापित कर उदाहरण पेश किया गया था कि ध्वस्त करने के विषम प्रभावों को न्यूनतम किया जा सकता है। वैसे सनद रहे कि धूल का गुबार होना मात्र ही प्रदूषण नहीं होता।

हालांकि यह निर्णय सार्वजनिक उपयोग तथा बड़ी परियोजनाओं के संदर्भ में दिया गया है, किंतु जो सबसे बड़ा सवाल उभर कर आया है, वह है अनियंत्रित होती कार्यपालिका की कोई जवाबदेही न होना। निर्णय में पूर्ण हुई परियोजनाओं को ध्वस्त करने अथवा पुनरावलोकन से हो रहे प्रदूषण को गंभीर चिंतनीय विषय माना है किंतु पर्यावरण स्वीकृति को विलंबित करने वाले तथा पर्यावरण के साथ समझौता करने वाले शासनतंत्र को भी दोषी करार देते हुए जवाबदेह बनाए जाने की जरूरत है। अन्यथा पर्यावरण नियंत्रण के कानून मात्र आडंबर स्वरूप बने रह जाएंगे।
स्वीकृति मिलने या न मिलने के कोई मायने ही नहीं हो, तो तत्संबंधी कानूनों के अस्तित्व की आवश्यकता ही क्यों है? इन सभी की उपादेयता तो तब ही साबित होगी जब पर्यावरण संबंधी स्वीकृतियों में विलंब एवं शिथिलता से हुए निर्माण के परिणामस्वरूप प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष हानि के लिए दोषी जिम्मेदार कार्यपालिका को कठोरता के साथ दंडित किया जाए और भविष्य में दायित्वविहीन कर दिया जाए।