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सम्पादकीय : लद्दाख में अहिंसक आंदोलन का हिंसक होना चिंताजनक

सरकार और आंदोलनकारियों के बीच वार्ता से ठीक पहले इस तरह का उपद्रव बताता है कि कोई पक्ष ऐसा भी है जो समाधान नहीं चाहता।

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लद्दाख में पूर्ण राज्य का दर्जा और संविधान की छठी अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग को लेकर चल रहे अहिंसक आंदोलन का हिंसक उपद्रव में बदल जाना गहरी चिंता का विषय है। सरकार और आंदोलनकारियों के बीच वार्ता से ठीक पहले इस तरह का उपद्रव बताता है कि कोई पक्ष ऐसा भी है जो समाधान नहीं चाहता। भाजपा कार्यालय, मुख्य चुनाव आयुक्त का दफ्तर व सीआरपीएफ की गाड़ी को जलाए जाने जैसी घटनाएं इस बात का संकेत हैं कि इसमें बाहरी या निहित स्वार्थी तत्व सक्रिय हो सकते हैं। हिंसा में चार लोगों की मौत ने इस घटना की गंभीरता को और बढ़ा दिया है। आंदोलन की अगुवाई करने वाले सोनम वांगचुक की छवि अब तक गांधीवादी पर्यावरण कार्यकर्ता की रही है। उनका यह कहना महत्त्वपूर्ण है कि हिंसा पर उतरे लोग इससे पहले कभी आंदोलन का हिस्सा नहीं थे। यदि यह सच है, तो पता लगाना जरूरी है कि वे कौन थे और किसके इशारे पर आए। दूसरी ओर, केंद्र सरकार का आरोप है कि वांगचुक के कुछ बयानों ने हालात को भड़काया। उन्होंने 'अरब स्प्रिंग' और पड़ोसी देशों के 'जेन-जी' आंदोलनों का हवाला देकर उकसाया। सरकार को संदेह है कि वांगचुक की संस्था को विदेशों से अवैध धन मिल रहा है। इस संदेह की जांच जरूर होनी चाहिए। केंद्रीय जांच एजेंसी इसकी जांच शुरू कर चुकी है।

किसी भी देश के लिए सीमावर्ती प्रदेशों का प्रबंधन हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है। भारत सरकार को भी पंजाब, उत्तर-पूर्व और जम्मू-कश्मीर में लंबे समय तक असंतोष और हिंसा से जूझना पड़ा है। हालांकि, पिछले दशकों में इन इलाकों में काफी हद तक शांति स्थापित हुई है। 2019 में अनुच्छेद 370 हटाकर जम्मू-कश्मीर को दो हिस्सों में बांटा गया और लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया। इस फैसले से लद्दाख के लोग खुश थे क्योंकि वे लंबे समय से जम्मू-कश्मीर से अलग होने की मांग कर रहे थे। केंद्र सरकार ने वादा किया था कि लद्दाख को ऐसा केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाएगा जिसके पास विधानसभा हो। पांच साल बाद भी विधानसभा गठित न होने से राजनीतिक प्रतिनिधित्व की कमी खलने लगी है। यही कारण है कि लेह के बौद्ध और करगिल के मुस्लिम, जो अक्सर किसी मुद्दे पर साथ नहीं आते, इस बार एकजुट दिखाई दे रहे हैं। यह बताता है कि असंतोष गहरा और व्यापक है।

सरकार को चाहिए कि वह आंदोलनकारियों से तुरंत संवाद करे, उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व की कमी को दूर करने के ठोस उपाय सुझाए और हिंसा की घटनाओं की पारदर्शी जांच करवाए। लोकतंत्र का रास्ता संवाद से ही निकलता है। आंदोलनकारियों को भी यह समझना होगा कि हिंसा से उनकी मांगों की विश्वसनीयता कमजोर होती है और समस्या और उलझती है। सरकार को भी यह संदेश देना होगा कि वह केवल सुरक्षा दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि लद्दाख के लोगों की भावनाओं को समझते हुए समाधान खोजने के लिए प्रतिबद्ध है। लद्दाख के घटनाक्रम में यदि कोई विदेशी हस्तक्षेप हो भी उसे नाकाम करने का यही सबसे असरदार तरीका है।