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जीवनरक्षक अस्पतालों में घातक सुरक्षा चूक

राज कुमार सिंह, वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार

3 min read

राजस्थान का सबसे बड़ा सवाई मानसिंह अस्पताल छह मरीजों के लिए दावानल बन गया। दूरदराज से ये मरीज जीवन रक्षा के लिए अस्पताल आए थे, लेकिन वहां की बदइंतजामी ने ही उनकी जान ले ली। जैसा कि हर हादसे के बाद होता है, मृतकों के प्रत्यक्षदर्शी परिजन अस्पताल की बदइंतजामी बयां कर रहे हैं, पर अस्पताल प्रशासन जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ता दिख रहा है। हालांकि सरकार ने जांच समिति बना दी है लेकिन इसमें स्वास्थ्य क्षेत्र और अग्निशमन प्रबंधन का कोई स्वतंत्र विशेषज्ञ नहीं है।

कभी मुंबई को हादसों का शहर बताते हुए फिल्मी गीत लिखा गया था, पर आज भारत ही हादसों का देश बनता जा रहा है। अहमदाबाद में एयर इंडिया का विमान टेकऑफ करते ही क्रैश होकर 260 लोगों के जीवन की अंतिम उड़ान बन जाता है। एक आईपीएल क्रिकेट टीम की खिताबी जीत के जश्न में दर्जन भर खेल प्रेमी भगदड़ से मर जाते हैं, पर कोई सबक नहीं सीखा जाता। सबक सीखा गया होता तो फिर पिछले दिनों तिरूर में तमिल फिल्म अभिनेता विजय के राजनीतिक रोड शो में 31 लोग भगदड़ में नहीं मारे जाते। बेशक यह जीवन की व्यावहारिक वास्तविकता है कि हर हादसा नहीं टाला जा सकता, लेकिन यह बात प्राकृतिक या परिस्थितिवश हो जाने वाले हादसों की बाबत है। इस तर्क की आड़ में मानव निर्मित हादसों की जिम्मेदारी और जवाबदेही से नहीं बचा जाना चाहिए। वैसे तो पूरा अस्पताल परिसर ही बेहद संवेदनशील होता है। आखिर गंभीर बीमारियों से जूझ रहे लोग ठीक होने की आस लिए वहां आते हैं, पर ट्रोमा सेंटर के आइसीयू में ही भयावह आग लग जाना और उस पर त्वरित काबू पाने के जरूरी इंतजाम भी न होना तो प्रबंधन तंत्र की संवेदनहीनता और आपराधिक लापरवाही का प्रमाण है।

आइसीयू में ऐसे गंभीर मरीजों को रखा जाता है, जिन्हें 24 घंटे चिकित्सकीय टीम की निगरानी और आधुनिकतम मशीनी तंत्र के सहयोग की जरूरत होती है। आइसीयू मरीजों के पास उनके परिजनों को रुकने की इजाजत नहीं होती। आपात स्थिति में ये मरीज स्वयं तो बेड से उतर कर अपने बचाव के लिए भाग ही नहीं सकते, कुछ दूरी पर वेटिंग हॉल में मौजूद परिजन भी हादसे की तत्काल जानकारी मिलने पर अपने मरीजों को वहां से निकालना चाहें तो जरूरी मशीनी तंत्र के सहयोग के बिना शायद वे ज्यादा समय जिंदा न रह पाएं। फिर आइसीयू के आसपास ऐसी चीजें क्यों थीं, जो शॉर्ट सर्किट का कारण बन सकतीं हों या वैसा होने पर जिनसे आग ज्यादा तेजी से फैल सकती हो? वैसी स्थितियों से निपटने के लिए बहुमंजिला इमारतों में सुरक्षित खुला निर्गम बिल्डिंग बायलॉज की अनिवार्यता है, जो परिजनों के मुताबिक सवाई मानसिंह अस्पताल में नहीं दिखी। आग बुझाने के उपकरण भी पूरी क्षमता से काम करने की स्थिति में नहीं थे। आग ऊपर की मंजिल में लगी, जहां तक पानी पहुंचाने के लिए स्नॉर्कल लैडर मशीन की जरूरत थी।

राजधानी जयपुर में उस मशीन को आने में सवा घंटा लग गया तो प्रदेश के बाकी शहरों में आप क्या उम्मीद कर सकते हैं? अस्पताल प्रबंधन अपने स्टाफ के जान बचाकर भाग जाने की बात स्वीकार नहीं करेगा, पर क्या निजीकरण के इस दौर में ज्यादातर अस्पतालों में मध्यम और निचले वर्ग का स्टाफ बाहरी कंपनी से ठेके पर ही नहीं लिया जाता? यह स्टाफ अग्निकांड आदि आपात स्थितियों से निपटने के लिए पूर्ण प्रशिक्षित तो नहीं ही होता। ऐसा नहीं कि दूसरे देशों में हादसे नहीं होते, पर वहां जिम्मेदार लोगों को कठोर सजा देते हुए पुनरावृत्ति रोकने के लिए जरूरी सबक भी सीखे जाते हैं, लेकिन हमारा तंत्र चंद दिन की चर्चा के बाद फिर अगले हादसे तक गहरी नींद सो जाता है। सिनेमाघर, मॉल और मनोरंजन पार्क के हादसों की चर्चा फिलहाल न भी करें तो क्या यह आंकड़ा हमारे तंत्र को शर्मसार करने वाला नहीं कि जनवरी 2020 से अक्टूबर 2024 के बीच ही देश भर में 100 से भी ज्यादा अस्पतालों में अग्निकांड हुए। अस्पताल में आग का सबसे भयावह हादसा 2011 का माना जाता है, जब कोलकाता के एएमआरआइ अस्पताल में लगी आग में 89 लोग मारे गए थे। जांच से पता चला कि आग बेसमेंट में शॉर्ट सर्किट होने से लगी, जहां अवैध रूप से ज्वलनशील सामग्री जमा थी। चौंकाने वाली बात यह कि अस्पताल का फायर अलार्म और डिटेक्शन सिस्टम भी बंद था, जिससे रेस्क्यू ऑपरेशन में काफी समय लगा। फिर 2021 में विरार (मुंबई) के कोविड अस्पताल में लगी आग में 13 लोग मारे गए। बदइंतजामी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वहां इमरजेंसी एग्जिट ढूंढना भी मुश्किल हुआ।

एक रिपोर्ट के मुताबिक अस्पतालों में आग की 11 बड़ी घटनाओं में कुल 107 लोग मारे गए, लेकिन न तो किसी को सजा हुई और न ही जवाबदेही तय की गई। अग्निकांड के अक्सर जाने-पहचाने कारण पाए जाते हैं, लेकिन फिर भी व्यवस्था सुधरती नहीं। आम व्यावसायिक इमारतों-स्थलों की तरह अस्पतालों में भी तमाम सुरक्षा इंतजाम कागजों पर ही पाए जाते हैं, वास्तव में नहीं, जिसकी पोल हादसे के बाद खुलती है। ऐसे हादसों से बचने के लिए जरूरी कदमों-उपायों की निगरानी के लिए केंद्र सरकार ने भी अभी तक कोई राष्ट्रीय ट्रेनिंग सिस्टम नहीं बनाया है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक अस्पतालों में आग की 11 बड़ी घटनाओं में कुल 107 लोग मारे गए, लेकिन न तो किसी को सजा हुई और न ही जवाबदेही तय की गई। अग्निकांड के अक्सर जाने-पहचाने कारण पाए जाते हैं, लेकिन फिर भी अस्पतालों में व्यवस्था सुधरती नहीं।